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Friday, 14 December 2018

षडङ्गपानीय का परिचय, परिभाषा, निर्माण विधि का ज्ञान। Shadangapaaneey

TOPIC- 6 
विभिन्न औषध कल्पो का परिचय, परिभाषा, निर्माण विधि का ज्ञान। 

(1)   षडङ्गपानीय 

परिभाषा 


यह उशीर अदि छः द्रव्यों को जल में मिलाकर उबालकर शीतल करके ज्वरजन्य, पिपासा की शांति के लिए दी जाने वाली पानीये कल्पना है। 


द्रव्य 

1) उशीर ( खस ) = 2 ग्राम           
2) नागरमोथा = 2 ग्राम 
3) सुगन्धबाला = 2 ग्राम 
4) शुण्ठी = 2 ग्राम 
5) रक्तचंदन = 2 ग्राम 
6) पर्पट ( पित्तपापड़ा ) = 2 ग्राम 

इन सभी द्रव्यों को यवकूट चूर्ण करके 64 तोले जल में उबाल ले। फिर छानकर मिटटी के या स्टेनलेस स्टील के पात्र में ठंडा होने के लिए रख दे। ठंडा होने के बाद इसका सेवन करना चाहिए। 

मात्रा - 4 से 8 तोले की मात्रा दिन में 4 से 6 बार।

उपयोग - 

इसका उपयोग दाह, तृष्णा, पिपासा और ज्वर तथा अन्य पितज विकारों में किया जाता है। 




स्नेह कल्पना, निर्माण विधि का ज्ञान। स्नेहसिद्धि के लक्षण एवं सामान्य मात्रा Sneh kalpana,

TOPIC: 3 
स्नेह कल्पना, निर्माण विधि का ज्ञान। स्नेहसिद्धि के लक्षण एवं सामान्य मात्रा । 

स्नेह कल्पना

शरीर में वात दोष के कारण व्याधि उत्पन्न होती है। इसलिए वात दोष की शांति के लिए स्नेह कल्पना या स्नेह पाक उत्तम मानी गयी है। चिकित्सा में प्रयोग होने वाले घृत - तैल आदि स्नेह मूर्च्छना के बाद कल्क-कवाथ, जल, दुग्ध आदि द्रवो के साथ मिलकर किसी पात्र में डालकर आग पर जो पाक किया जाता है उसको हम स्नेह पाक कल्पना कहते है । 


स्नेह सिद्धि की सामान्य परिभाषा - 


जब स्नेह में जल का अंश पूरी तरह नष्ट हो जाये तो उसे मूर्च्छन अवस्था कहते है। उसके बाद जिस द्रव्य की स्नेह कल्पना तैयार करनी हो तो उसका चूर्ण या कल्क उस स्नेह द्रव्य में डालकर उसको आग पर पाक करना चाहिए । इस प्रकार स्नेह सिद्धि होने पर आग से उतार कर डिब्बे में भरकर सुरक्षित रखा जा सकता है ।

स्नेह के प्रकार - 

(1) घृत  
(2) तैल 
(3) वसा 
(4) मज्जा 

निर्माण विधि का ज्ञान -

स्नेह कल्पना तैयार करने के लिए औषधि द्रव्य के कल्क से स्नेह को चार गुना ज्यादा लेना चाहिए । जैसे कि द्रवो से मिला कल्क 16 तोला हो तो स्नेह 64 तोला लेना होता है । जल, दूध, कवाथ, स्वरस आदि से स्नेह चार गुना मात्रा में लेना होता है ।

स्नेह पाक के सामान्य नियम - 

1) धीमी आंच पर स्नेह मूर्च्छन करे ।
2) औषधियुक्त स्नेहकल्पना को उबलने से पहले आंच से उतार कर  थोड़ा ठंडा होने दे नही तो स्नेह में उबाल आने पर आग लग सकती है ।
3) मूर्च्छना करने से स्नेह की दुर्गन्ध वह आमदोष खत्म हो जाते है । और औषध द्रव्य से सुगंध आने लगती है ।    
       
स्नेह पाक के प्रकार 

(1) मृदु स्नेहपाक 
(2) मध्य स्नेहपाक 
(3) खर स्नेहपाक

मृदु स्नेहपाक - जब औषध का कल्क घी में पककर गोंद की तरह हो जाये और जल का अंश खत्म हो जाये उसे मृदु स्नेहपाक कहते है इसका प्रयोग वस्तिकर्म तथा पीने के लिए किया जाता है ।

मध्य स्नेहपाक - जब औषधि का कल्क पककर हलवे जैसा गाढ़ा हो जाये और जल का अंश समाप्त हो जाये तथा कल्क की वर्ति बनने लगे उसको 
मध्य स्नेहपाक कहते है । इसका प्रयोग नस्य कर्म हेतु किया जाता है । 

खर स्नेहपाक - जब औषधि का कल्क पककर हाथ से वर्ति बनाने पर वर्ति बन जाये तथा पुनः टुकड़े टुकड़े होकर गिरने लगे और स्नेह से दग्ध पाक जैसे गन्ध आने लगे उसको खर स्नेहपाक कहते है । इसका प्रयोग मालिश के लिए किया जाता है । 

स्नेह सिद्धि के लक्षण 

1जिस कल्क को स्नेहसिद्ध करते है उसको हाथ की अंगुलियों में लेकर यदि उसकी वर्ति बन जाये तो स्नेह को सिद्ध समझना चाहिए । 

२) औषधि कल्क मिश्रित स्नेह को चमच से आग पर डालने से चट-चट शब्द की आवाज नही आती ।  
3) तैल पाक के समय तैल के पात्र में झाग उत्पन ना होना और घृत पाक के समय घृतपात्र में फेन का शांत हो जाना स्नेहसिद्धि का लक्षण है । 
4) सुगंध, वर्ण, और रास की उत्पति होना यही स्नेहपाक का प्रमुख लक्षण मन गया है ।  
इस प्रकार स्नेह कल्पना के अंतर्गत औषधि सिद्ध घृत, औषधि सिद्ध तैल,  अन्य औषधिद्रव्यों को स्नेहसिद्ध किया जा सकता है । 

सामान्य मात्रा 

1) स्नेह सिद्धि हेतु औषधि कल्क से चार गुना घृत-तैल 
2) स्नेह से चार गुना ज्यादा द्रवद्रव्य ( स्वरस, कवाथ, हिमादि )लेना होता है। 


हिम कल्पना एवं फाण्ट कल्पना और उनकी मात्रा Him kalpana aur phaanta kalpana

हिम कल्पना  एवं फाण्ट कल्पना और उनकी  मात्रा ।


हिम कल्पना : 

इस कल्पना में द्रव्य का यवकूट चूर्ण कर मिट्टी की हांड़ी में गरम जल डालकर पूरी रात भिगोकर रख दे। और सुबह इन द्रव्यों को हाथ से अच्छी तरह मसलकर कपड़े से छान कर बर्तन में रखा जाता है। इसको हिम या शीत कल्पना कहते है। इस कल्पना में जल की मात्रा औषधि द्रव्य से  6 गुना ज्यादा होती है जैसे 4 तोला द्रव्य में 24 तोले जल ।

हिम की मात्रा :  2 पल = 8 तोला 

फाण्ट कल्पना :

मिट्टी की एक हांड़ी में 16 तोले जल को उबाले । जब जल उबलने लगे तो उसमे 4 तोला  मृदु द्रव्यों का यवकूट चूर्ण डालकर अच्छी प्रकार ढक कर चूल्हे से उतार कर ठंडा होने के लिए रख दे । ठंडा होने के बाद हाथ से मसलकर वस्त्र से छानकर रोगी को पीने को दें। इस कल्पना को फाण्ट कहते है। 

मात्रा :  2 पल = 8 तोला । 

कवाथ कल्पना तथा मात्रा Kvath kalpana

कवाथ कल्पना तथा मात्रा 

कवाथ कल्पना:  

शुष्क अथवा गीले द्रव्यों को यवकूट कर आवश्यकता अनुसार जल में उबाल कर छानने के बाद जो औषधि तैयार  होती है। उसे कवाथ कहते है। 

कवाथ में जल की मात्रा: 

मृदु औषधि द्रव्य में  चार गुना जल। 
कठिन औषधि द्रव्य में आठ से 16 गुना जल। 

कवाथ की मात्रा:  एक पल = 4 तोला 

कवाथ में प्राक्षेप द्रव्य : 

मिश्री की मात्रा - वातज रोग में 1/4 भाग, 
पित्तज रोग में 1/6 भाग, 
कफज रोग में 1/8 भाग । 
हींग, त्रिकटु, गुग्गल और भुना जीरा का चूर्ण 3 ग्राम 
दूध, गुड़, घृत की मात्रा एक कर्ष = 1 तोला। 


कल्क कल्पना तथा मात्रा,कल्क में प्रक्षेप द्रव्य Kalk kalpana

कल्क कल्पना तथा मात्रा,कल्क में प्रक्षेप द्रव्य-

कल्क कल्पना

कल्क को पेस्ट भी कहा जाता है ताज़ा औषधि हो तो शिलपिष्ट करके कल्क तैयार किया जाता है। शुष्क द्रव्य हो तो  उसके चूर्ण में आवश्यकता अनुसार जल मिलाकर कल्क तैयार करते है। अर्थात जल, स्वरस आदि के साथ शुष्क औषधि द्रव्य के चूर्ण को पीस कर बनाया गया पिण्ड कल्क कहलाता है।

कल्क  मात्रा 

1 कर्ष = 1तोला, तीक्ष्ण द्रव्यों के कल्क की मात्रा 5 से 6 gm 

कल्क में प्रक्षेप द्रव्य : 

कल्क सेवन करते समय शहद तथा घृत की मात्रा कल्क से दोगुनी, 
मिश्री और गुड़ सामान मात्रा में,
स्वरस दूध और जल चार गुना मात्रा  में लेने चाहिए । 


स्वरस कल्पना और स्वरस की मात्रा Svaras kalpana, svaras maatra

स्वरस कल्पना और स्वरस की मात्रा- 



स्वरस कल्पना: 

किसी भी द्रव्य का अपना जो रस होता है। उसको स्वरस कहा जाता है अर्थात भूमि से तुरंत उखाड़ी गई हरी औषधि को निचोड़ या दबाकर जो रस निकलता है। उसको स्वरस कहते है। जैसे कि तुलसी पत्र का स्वरस । कुछ द्रव्य ऐसे होते है जिनका स्वरस साधारण विधि से नही निकाला जा सकता, उन द्रव्यों का स्वरस निकालने के लिए जिस विशेष विधि का प्रयोग किया जाता है। उसको पुटपाक विधि कहते है । जैसे कि वासा पत्र , निम्बपत्र , विल्वादी पत्र । 




स्वरस मात्रा (DOSE):  

1/2 पल = 2 तोला = 20 ML 

पुटपाक स्वरस की मात्रा = 1 पल = 4 तोला = 40 ML  
स्वरस एक गुरु कल्पना है इसलिए ताज़ा औषध द्रव्यों की मात्रा 20 ML सूखे द्रव्यों की मात्रा 40 ML तथा अतितीक्ष्ण द्रव्यों का स्वरस 10 ML देना चाहिए ।


कषाय की परिभाषा, कषाय योनियां Kashaay ki paribhaasha

कषाय की परिभाषा, कषाय योनियां- 



कषाय की परिभाषा:


जिस द्रव्य का सेवन करने से गले में कर्षण (खरखराहट) होती है । उस द्रव्य को हम कषाय द्रव्य कहते है । कषाय का अर्थ द्रव्य का असली रूप नष्ट कर उसको खाने के योग्य बनाना । जैसे- तुलसी के पत्र का रस प्राप्त करने के लिए उसके मूल स्वरूप को नष्ट करना पड़ता है अर्थात तुलसी पत्र को पीस कर उसका रस प्राप्त किया जाता है ।




कषाय योनियां: 


हर तरह के कषाय लवण रस को छोड़ कर बाकी के पांच रसों से बनते है ।

                     
  • (1) मधुर कषाय                      
  • (2) अम्ल कषाय
  • (3) कटु कषाय                     
  • (4) तिक्त कषाय 
  • (5) कषाय कषाय 





Thursday, 13 December 2018

पंचविध कषाय कल्पना का सामान्य प्रचलित ज्ञान तथा परिभाषा Panchavidh kashaay kalpana

TOPIC: 2
पंचविध कषाय कल्पना का सामान्य प्रचलित ज्ञान तथा परिभाषा 



परिभाषा : किसी भी द्रव्य को चाहे वो आहार द्रव्य हो या औषधि द्रव्य हो उनको हम सीधा प्रयोग नही कर सकते। इस लिए जिस विज्ञान में इन द्रव्यों को प्रयोग करने के काबिल बनाया जाता है। उस विज्ञान को भेषज्य कल्पना विज्ञान कहते है। 

पंचविध कषाय कल्पना:

औषध द्रव्य या आहार द्रव्य का जिन विधियों के द्वारा प्रयोग किया जाता है वह पंचविध कषाय कल्पना कहलाती है। 
वह पंचविध कषाय कल्पना पांच प्रकार की मानी गई है ।


यह पांच प्रकार की कल्पनायें पांच रस द्रव्यों से तैयार की जाती है ।
जैसे कि : मधुर , अम्ल , लवण , कटु , तिक्त , कषाय रस । continued....


प्राचीन एवं आधुनिक मान का तुलनात्मक सामान्य ज्ञान Pracheen, aadhunik maan ka tulanaatmak gyaan

प्राचीन एवं आधुनिक  मान का तुलनात्मक  सामान्य  ज्ञान 



तीनों आचार्य चरक, शुश्रुत, और शाङ्गधर  ने अपने अलग- अलग ढंगो से मान का वर्णन किया है परंतु अंत में नतीजा एक ही निकलता है जिसके अनुसार रति और ग्राम  एक सामान माने गए है । जैसे कि  सुश्रत  और शाङ्गधर ने 6 रति का एक माषक  माना है और 4 माषक का एक शान  माना है । इस प्रकार चरक ने 12 माशे का एक कर्ष माना है जिसमे रति की गिनती 96 है  दूसरी तरफ सुश्रत और शाङ्गधर ने 16 माशे का एक कर्ष माना है परन्तु  रति इसमें भी 96 ही होती है एक रति 62 ग्राम की मानी गयी है




चरक अनुसार                                                               सुश्रत अनुसार




8 रति = 1 माशा (1ग्राम, 1000mg)                                    6 रति = 1 माशा (1ग्राम, 1000mg)

3 माषक = 1 शान = 24 रति                                             4 माषक = 1 शान = 24 रति
2 शान = 1 कोल = 48 रति                                               2 शान =1 कोल = 48 रति
2 कोल = 1 कर्ष = 96 रति                                                2 कोल =1 कर्ष = 96 रति (12 ग्राम )= 1 तोला  

मान की उपयोगिता , शुष्क एवं आर्द्र, द्रव्यों का ग्रहण नियम Maan ki upayogita,

मान की उपयोगिता , शुष्क एवं आर्द्र, द्रव्यों का ग्रहण नियम ।




मान की उपयोगिता - : 

आयुर्वेद में औषधियों के निर्माण से लेकर उसके सेवन तक पथ्य अनुपान सभी कार्यों में मान का महत्त्व्पूर्ण स्थान है द्रव्यों का प्रयोग मान के बिना निष्फल हो जाता है किसी भी औषध का प्रयोग मान के बिना नही हो सकता अगर औषधि कम या ज्यादा मात्रा में दे दी जाये तोह उसके परिणाम घातक हो सकते है आयुर्वेद में जितनी भी कल्पनायें है उनका निर्माण करने के लिए मान को ठीक-ठीक प्रयोग में लाना चाहिए । जैसे ; वटी , चूर्ण ,आसव और आरिष्ट आदि ।

मान के कम या ज्यादा होने से यह कल्पनायें प्रयोग करने के योग्य नही रह जाती विभिन्नऔषधियों को अधिक से अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए उनमे घटक द्रव्य उचित मात्रा तथा उचित मान में ही मिलाने चाहिए, व्यादि ग्रस्त तथा स्वस्थ मनुष्य को औषधि द्रव्य तथा भोजन आदि मान के अनुसार ही दिया जाना चाहिए ।
इस प्रकार वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टि से हमारे जीवन में मान का विशेष महत्व है ।

शुष्क एवं आर्द्र, द्रव्यों का ग्रहण नियम: 

आयुर्वेद में औषध द्रव्यों से तैयार  की जाती है यह द्रव्य शुष्क एवं आर्द्र होते है औषधि बनाने के लिए शुष्क द्रव्य आर्द्र द्रव्यों के मुकाबले आधे लेने चाहिए । क्योंकि शुष्क द्रव्य गुरु और तीक्ष्ण वीर्य होते है इस लिए इनकी मात्रा आद्र द्रव्यों से आधी ली जाती है औषधि निर्माण हमेशा शुष्क द्रव्य ही लेने चाहिए क्योंकि इन्ही से औषधि उपयोगी बनती है । परन्तु यदि कहीं आद्र द्रव्य लेने पड़े तो उनको दोगुनी मात्रा में लेना चाहये । इसके इलावा कुछ द्रव्य ऐसे है जिनको हमेशा ताज़ा ही लिया जाता है किन्तु उसमे दोगुनी मात्रा नही लेते जैसेकि:- वासा, शतावरी, कुटज, प्रसारणी, गुडूची इत्यादि ।



मान की परिभाषा ,द्र्व्यमान एवं पय्यमान की परिभाषा Maan ki paribhasha, maan ke bhed,

मान की परिभाषा ,द्र्व्यमान एवं पय्यमान की परिभाषा                                                                                                             

मान की परिभाषा : जिससे तोला या मापा जाता है उसे मान कहा जाता है

मान के ज्ञान की आवश्यकता : मान के बिना किसी भी मनुष्य चाहे वो बीमार हो या वह स्वस्थ हो उसे कोई भी द्रव्य नही दिया जा सकता,क्योंकि किसी भी आहार द्रव्य या औषधि के निर्माण के लिए जिन द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है वह उचित मात्रा में होने चाहिए, इस लिए मान का ज्ञान होना आवशयक है ।

 मान के भेद : आचार्य चरक ने मान के दो भेद माने है ।

                       १) मागध मान
                       २) कालिंग मान


इनमें से मागध मान श्रेष्ठ माना गया है । इसके इलावा मान के तीन भेद और माने गये है ।

१) पौत्तव मान  {Measurement of weight} : यह केवल ठोस द्रव्यों को तोलने के काम आता है

२) द्र्व्य मान{ Measurement of capacity} : केवल द्रव पदार्थ के माप के लिए पात्र विशेष जिससे द्रव पदार्थ मापा जाये उसे द्रव्यमान कहते है ।

३)पय्यमान {Measurement of length }: यह केवल द्रव्य पदार्थो की लंबाई, चौड़ाई, मोटाई मापने के काम आता है ।

CONTINUED...

Thursday, 12 January 2017

खण्ड पाक

TOPIC- 31          खण्ड पाक   

परिचय - यह एक प्रकार की अवलेह कल्पना के अंतर्गत आता है । इस विभिन प्रकार के द्रव्यों का चूर्ण खण्ड के रूप में प्रयोग में लेते है । 

हरिद्रा खण्ड निर्माण विधि - सबसे पहले हल्दी , गाय का दूध , घृत , खाण्ड लेकर मृदु आंच पर धीरे धीरे पाक करते है । जब यह पाक हो जाये तो त्रिकटु ,( सोंठ , पिप्पली , मरिच ) त्रिजातक ( दालचीनी , छोटी इलायची , तेजपत्र )  वायवडिंग , निशोथ , त्रिफला , नागकेसर , मोथा , लौह भस्म प्रत्येक का प्रक्षेप देते है । फिर सभी को अच्छी तरह मिला देते है । इस प्रकार हरिद्राखण्ड तैयार हो जाता है । 

मात्रा - आधा तोला । 

प्रयोग - यह कण्डू , विस्फोटक , दग्ध , शीतपित्त , उदरशूल और त्वचागत रोगों को नष्ट करता है । यह कण्डू रोग ( खुजली ) की उत्तम औषधि है ।  

                                             
                                                        ~ समाप्त ~ 
                                                              

Wednesday, 11 January 2017

शतधौत तथा सहस्त्रधौत घृत

TOPIC- 30    शतधौत तथा सहस्त्रधौत घृत 

परिचय - शत अर्थात 100 बार धोया हुआ घी शतधौत कहलाता है । और 1000 बार धोया हुआ घी सहस्त्रधौत कहता है । 

निर्माण विधि - एक कांच के चौड़े कटोरे में गाय का गाड़ा घी लेकर उसमे दोगुना शीतल जल डाल लेते है । अब अपने दोनों हाथ से खूब मसलकर पानी को निथार लेते है फिर पात्र में घी के ऊपर पानी डालकर मंथन करते है और जल निथार लेते है इस प्रकार घी को शीतल जल में डालकर धोने की इस क्रिया को सौ बार किया जाये तप शतधौत कल्पना तैयार होती है । और हज़ार बार जल से धोने से सहस्रधौत घृत कल्पना बनती है । 

प्रयोग - यह कल्पना दाह , दग्ध वेदना ( जले हुए भाग में पीड़ा ) तथा पैतिक लक्षणो का शमन या नाश करने के लिए प्रयोग होता है । 

Tuesday, 10 January 2017

लेप कल्पना

TOPIC- 29            लेप कल्पना 

परिभाषा -  औषधि द्रव्य को गीला करके या शुष्क औषधि चूर्ण को जल आदि दद्र्वो के साथ शिला पर पीसकर पतला कल्क बनाकर देह पर प्रलेपन हेतु जो कल्पना बनाई जाती है उसे लेप कल्पना कहते है । व्रण ( जख्म ) पर किया हुआ लेप पीड़ा को शीघ्र शांत करता है। व्रण का शीघ्र शोधन करता है । और शोथरण ( swelling ) करता है अथवा सूजन दूर करता है । लेप व्रण का रोपण भी जल्दी करता है । 

भेद -  लेप के तीन भेद होते है । प्रलेप , प्रदेह , आलेप । 

1)  प्रलेप -  यह शीतल औषधियों का पतला लेप है जो आर्द्रता ( गीलापन ) को शोषण करने वाला होता है । यह रक्त और पित्त विकारों में लाभदायक है ।  

2)  प्रदेह - यह उष्ण और शीत , मोटा और पतला तथा अधिक न सूखने वाला लेप होता है । अथवा जो आर्द्रघन ,उष्ण , श्लेष्मक और वातनाशक होता है । उसे प्रदेह कहते है । यह संधान , शोधन , रोपण , वेदनानाशक होता है । इसका प्रयोग व्रणयुक्त व अव्रणयुक्त दोनों प्रकार के शोथ  में किया जाता है। 

3)  आलेप -  प्रलेप और प्रदेह के जैसे समान लक्षणों वाला आलेप होता है । यह न अधिक गाढ़ा न अधिक पतला न अधिक शीतल न अधिक उष्ण होता है । 

लेप लगाने की विधि -  लेप को सदा लोमों के रुख के विरुद्ध दिशा में लगाना चाहिए ।

प्रयोग -  शोथ का नाश करने के लिए लेप का प्रयोग किया जाता है । इसके इलावा दाह , कण्डू और रुजा को नष्ट करने के लिए भी लेप का प्रयोग किया जाता है । 

Monday, 9 January 2017

नेत्रकल्प

TOPIC- 28             नेत्रकल्प  

परिचय - आचार्य सुश्रत ने नेत्र रोगों की चिकित्सा में पांच कर्म माने है उनको नेत्र कल्प कहा जाता है । परन्तु आचार्य शार्ङ्गधर ने नेत्र रोगों के उपचार के लिए सात कल्प बताये है

1)  सेक 
2)  आश्च्योतन
3)  पिण्डी 
4)  विडाल 
5)  तर्पण 
6)  पुटपाक 
7)  अंजन 

1) तर्पण- सबसे पहले रोगी के शरीर की वमन, विरेचन से शुद्धि तथा शिरोविरेचन के द्वारा शिर का शोधन करके भोजन जीर्ण होने के बाद शुभ दिन में तर्पण करना चाहिए। वायु , धूल , धूप रहित स्थान पर रोगी को बेड पर लिटाकर दोनों नेत्रकोषो के चारों तरफ उडद की पिट्ठी से मण्डलाकार के समान और दो अंगुल ऊँचा घेरा बना दें । अब इसमें घृत को सुखोष्ण जल में मिलाकर नेत्रगोलक के पक्ष्म के अग्रभाग तक भर देते है। घृत भरते समय आँखों को बंद रखते है । आँखों की पलकें डूबने तक घृत डाला जाता है। 

अवधि - स्वस्थ नेत्र में 500 शब्द के उच्चारण तक। कफज व्याधि में 600 शब्द , पित्तज में 800 शब्द , वातज व्याधि में 1000 शब्द उच्चारण तक ।  

2)  पुटपाक - तर्पण कर्म के समान इसमें भी नेत्रकोषों के चारों तरफ उड़द पिट्ठी से घेरा बनाते है । और पुटपाक  प्राप्त औषधि रस को अपांग की तरह घेरे में छिद्र बनाकर स्वरस निकाल देते है । और उष्ण जल में कपड़ा भिगोकर निचोड़कर नेत्र  स्वदेन और धूम्रपान करना होता है । पुटपाक के तीन भेद है - स्नेहन, लेखन, रोपण । 

3)  आश्च्योतन - जो रोग अतिप्रबल नही हुआ हो उस रोग के दोषों को आश्च्योतन कर्म नष्ट करता है। यह तीन प्रकार के होते है । स्नेहन 10 बूंद , लेखन 7-8 बूंद , रोपण 12 बूंद 

विधि - वातरहित स्थान में रोगी को बैठाकर या लिटाकर बायें हाथ से नेत्र को खोलकर रुई या ड्रॉपर से दो से तीन अंगुल की ऊँचाई से दोषों के अनुसार औषधि कवाथ नेत्र के कृष्ण भाग के ऊपर 7 से 12 बिंदु डालते है। फिर कोमल वस्त्र से आँख को साफ करके कोष्ण जल से धीरे धीरे स्वेदन है । 
धारण काल - 1000 शब्दों के उच्चारण तक । 

4)  सेक -  सेक का प्रयोग पुटपाक के समान नेत्रगत वेदना , कण्डु , दाह आदि में किया जाता है । सेक का धारण काल पुटपाक से दोगुना होता है । सेक का प्रयोग व्याधि के शांत होने तक किया जाता है । सेक के भी तीन भेद होते है । लेखन-कफज रोगों में 200 शब्द , स्नेहन - वातज में 400 शब्द , रोपण - रक्तज , पित्तज में 600 शब्द तक सेक किया जाता है । 

विधि - वात , धूल , धूप रहित स्थान में रोगी को लिटाकर आंखें बन्द कर देते है । कषाय , शीतल जल आदि द्रव औषधियों को चार अंगुल की ऊंचाई से धारा के रूप में पूरे नेत्र पर गिराते है इसको सेक कहते है । 

5)  विडालक -   पलकों को छोड़कर आंखों के ऊपर लेप किया जाता है । इसे विडालक कहते है । इसकी मात्रा मुख लेप के समान होती है । इसको लगाने से नेत्र बिल्ली या विडाल के नेत्र जैसे दिखते है । इस लिए इसे विडालक कहते है । 

विधि - मुलेठी , गैरिक , सैंधव लवण , दारुहरिद्रा , रसांजन सभी को १० ग्राम की मात्रा में लेकर इमामदस्ते में कूट लेते है । उसके बाद पत्थर की शिला पर पीसकर चन्दन जैसे पिष्टि बना लेते है । फिर इसका लेप बनाकर आंखों पर लगाते है 

प्रयोग - सभी प्रकार के नेत्र रोगों में । 

6)  अंजन - नेत्र रोगों के स्थानिक उपचारों में अंजन का प्रयोग किया जाता है । आमावस्था नष्ठ होने पर रोगों के अपने रूप में प्रगट होने पर वामन विरेचन से शुद्ध शरीर रोगी के नेत्र में अंगुली या शलाका से औषध का अंजन किया जाता है या लगाया जाता है । इसके तीन प्रकार होते है । लेखन अंजन - इसका प्रयोग सुबह के समय किया जाता है । रोपण अंजन - इसका प्रयोग शाम को करते है । प्रसादन - इसका प्रयोग रात के समय किया जाता है । 

मात्रा - लेखन - 2 शलाका , रोपण - 3 शलाका , प्रसादन - 4 शलाका ।  श्लेष्मिक व्याधियों में सुबह के समय , पैत्रिक व्याधि में रात में , वातिक व्याधि में शाम के समय अंजन लगाना चाहिए ।

Saturday, 7 January 2017

सिक्थ तैल कल्पना

TOPIC- 27               सिक्थ तैल कल्पना  

परिचय - सिक्थ को मोम भी कहा जाता है आयुर्वेद में मोम का अर्थ मधुमक्खी के छत्ते से लिया गया है  इस मोम अर्थात सिक्थ का प्रयोग आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में किया जाता है।  सिक्थ तैल निर्माण की दो विधियां होती है। 

प्रथम निर्माण विधि- सर्वप्रथम एक भाग मोम तथा आठ भाग तिल तैल को कड़ाही में डालकर धीमी आंच पर पाक करते है। इसमें सिक्थ ( मोम ) की मात्रा 50 ग्राम और तिल तैल की मात्रा 400 मिलीलीटर लेनी होती है। जब मोम पिघलकर तैल में मिल जाये तब तक कड़छी से उसे हिलाते रहे जब गाढ़ा हो जाये तो उसको कांच की चौड़े मुख वाली शीशी में रख लेते है इसको ही सिक्थ तैल कहते है।  

दूसरी निर्माण विधि- इस विधि में सिक्थ 50 ग्राम तथा तिल तैल 250 मिलीलीटर अथवा एक भाग मोम और पांच भाग तिल तैल कड़ाही में डालकर उसको धीमी आंच पर पकाकर तीन घंटे तक कड़छी से हिलाते रहे जब यह द्रव्य मिलकर गाढ़ा होकर एक जैसा हो जाये  तो कांच के पात्र में रख लेते है यह सिक्थ तैल है। 

प्रयोग - इसका प्रयोग व्रण रोपण के लिए और  त्वक रोगों ( skin diseases ) में किया जाता है । 

Friday, 6 January 2017

उपनाह कल्पना

TOPIC - 26         उपनाह कल्पना 

परिचय - आम या पकव दोनों प्रकार के व्रणशोथ पर अलसी आदि उष्ण वीर्य द्रव्यों को द्रव के साथ पीसकर लेप लगाना उपनाह कल्पना है। शोथ की आमावस्था या अपक्वावस्था में उपनाह के प्रयोग से शोथ का शमन हो जाता है। और अपकव अवस्था में उपनाह का प्रयोग करने से शोथ का शीघ्रता से पाक हो जाता है। इंग्लिश में उपनाह को POULTICE कहते है। 

निर्माण विधि - लोहे के खरल में सत्तू को तैल और घृत के साथ कूटकर पिण्ड बना लेते है। और कुछ गर्म करके वस्त्र पर चाकू से फैला लेते है। तथा शोथयुक्त स्थान पर चिपका देते है। 

प्रयोग - इसका प्रयोग व्रण शोथ में किया जाता है।  

Thursday, 5 January 2017

मलहम कल्पना

TOPIC- 25        मलहम कल्पना 

परिचय- व्रण,विद्रधि तथा त्वचा के विकारों के मल को दूर करने वाली कल्पना मलहम कहलाती है। इसको मलहर भी कहा जाता है। इंग्लिश  में इसको ointment कहते है। मलहम में दो प्रकार के द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। 
1) चिकनाई के लिए तैल,मोम,सिक्थ तैल, गन्धविरोज़ा, शतधौत घृत, वैसलीन liquid paraffin आदि द्रव्य । 
2) पारद, गंधक, रसपुष्प, रससिंदूर, स्फटिक, टंकण, कर्पूर, अजवायन के फूल आदि औषधियों का सूक्ष्म चूर्ण आदि । 

निर्माण विधि - मलहम बनाने के लिए सबसे पहले एक स्वच्छ स्टैनलेस स्टील के पात्र में तैल डालकर सिक्थ, गंधविरोजा मोमादि डालकर मृदु आंच पर गर्म करते है। पिघलने के बाद इसमें निर्दिष्ट पारद, गंधक आदि औषदि द्रव्य का चूर्ण करके छानकर गर्म तैल में डालकर अच्छी प्रकार मिलालें । इस तैयार मलहम को स्वच्छ कांच, चीनी, मिट्टी के पात्र में भरकर मुख को अच्छी प्रकार बंद करके सुरक्षित स्थान पर रख दें ।  


Wednesday, 4 January 2017

यूषरस

TOPIC- 24          यूषरस 

परिचय- जल, कवाथ, स्वरस, फाण्ट, हिम आदि द्रव पदार्थ तथा औषधि द्रव के साथ मूंग, मसूर, मोठ आदि धान्य को पकाकर जो द्रव रूप तैयार होता है उसको यूष कल्पना कहा जाता है। 


परिभाषा- यदि मृदुवीर्य द्रव्य का कल्क लेना हो तो एक पल (50gm) और तीक्ष्ण वीर्य द्रव्य लेने हो तो आधा कर्ष ( 5-6gm )लेकर 100ml जल में पकाकर आधा रहने पर शेष द्रव को वस्त्र से छान लेना चाहिए। यह द्रव ही यूष है। 

यूष के भेद - 1) कृत यूष 
                  2) अकृत यूष 
                  3) कृताकृत यूष 

गुण - दीपन, पाचन, वातनाशक इत्यादि। 

Tuesday, 3 January 2017

कृशरा

TOPIC- 23          कृशरा 

परिचय- कृशरा को लोकभाषा में खिचड़ी कहा जाता है। प्रायः खिचड़ी चावल मूंग की बनायी जाती है। तो आयुर्वेद में पथ्य के रूप में अतिसार में प्रयोग में लायी जाती है। 

निर्माण विधि - सबसे पहले चावल भाग और मूंग की दाल 1/4 भाग डालकर दोनों को 4 गुना पानी डालकर बर्तन  पर चढ़ा देते है। इस प्रकार पकने के बाद कृशरा या खिचड़ी कल्पना बनती है। इसमें उचित मात्रा में लवण, हींग और अदरक डाल सकते है। 

गुण - यह बलदायक, गुरुपाकी, वातनाशक, पित्तवर्धक, कफवर्धक, मल मूत्र उत्पादक होती है।