Monday 9 January 2017

नेत्रकल्प

TOPIC- 28             नेत्रकल्प  

परिचय - आचार्य सुश्रत ने नेत्र रोगों की चिकित्सा में पांच कर्म माने है उनको नेत्र कल्प कहा जाता है । परन्तु आचार्य शार्ङ्गधर ने नेत्र रोगों के उपचार के लिए सात कल्प बताये है

1)  सेक 
2)  आश्च्योतन
3)  पिण्डी 
4)  विडाल 
5)  तर्पण 
6)  पुटपाक 
7)  अंजन 

1) तर्पण- सबसे पहले रोगी के शरीर की वमन, विरेचन से शुद्धि तथा शिरोविरेचन के द्वारा शिर का शोधन करके भोजन जीर्ण होने के बाद शुभ दिन में तर्पण करना चाहिए। वायु , धूल , धूप रहित स्थान पर रोगी को बेड पर लिटाकर दोनों नेत्रकोषो के चारों तरफ उडद की पिट्ठी से मण्डलाकार के समान और दो अंगुल ऊँचा घेरा बना दें । अब इसमें घृत को सुखोष्ण जल में मिलाकर नेत्रगोलक के पक्ष्म के अग्रभाग तक भर देते है। घृत भरते समय आँखों को बंद रखते है । आँखों की पलकें डूबने तक घृत डाला जाता है। 

अवधि - स्वस्थ नेत्र में 500 शब्द के उच्चारण तक। कफज व्याधि में 600 शब्द , पित्तज में 800 शब्द , वातज व्याधि में 1000 शब्द उच्चारण तक ।  

2)  पुटपाक - तर्पण कर्म के समान इसमें भी नेत्रकोषों के चारों तरफ उड़द पिट्ठी से घेरा बनाते है । और पुटपाक  प्राप्त औषधि रस को अपांग की तरह घेरे में छिद्र बनाकर स्वरस निकाल देते है । और उष्ण जल में कपड़ा भिगोकर निचोड़कर नेत्र  स्वदेन और धूम्रपान करना होता है । पुटपाक के तीन भेद है - स्नेहन, लेखन, रोपण । 

3)  आश्च्योतन - जो रोग अतिप्रबल नही हुआ हो उस रोग के दोषों को आश्च्योतन कर्म नष्ट करता है। यह तीन प्रकार के होते है । स्नेहन 10 बूंद , लेखन 7-8 बूंद , रोपण 12 बूंद 

विधि - वातरहित स्थान में रोगी को बैठाकर या लिटाकर बायें हाथ से नेत्र को खोलकर रुई या ड्रॉपर से दो से तीन अंगुल की ऊँचाई से दोषों के अनुसार औषधि कवाथ नेत्र के कृष्ण भाग के ऊपर 7 से 12 बिंदु डालते है। फिर कोमल वस्त्र से आँख को साफ करके कोष्ण जल से धीरे धीरे स्वेदन है । 
धारण काल - 1000 शब्दों के उच्चारण तक । 

4)  सेक -  सेक का प्रयोग पुटपाक के समान नेत्रगत वेदना , कण्डु , दाह आदि में किया जाता है । सेक का धारण काल पुटपाक से दोगुना होता है । सेक का प्रयोग व्याधि के शांत होने तक किया जाता है । सेक के भी तीन भेद होते है । लेखन-कफज रोगों में 200 शब्द , स्नेहन - वातज में 400 शब्द , रोपण - रक्तज , पित्तज में 600 शब्द तक सेक किया जाता है । 

विधि - वात , धूल , धूप रहित स्थान में रोगी को लिटाकर आंखें बन्द कर देते है । कषाय , शीतल जल आदि द्रव औषधियों को चार अंगुल की ऊंचाई से धारा के रूप में पूरे नेत्र पर गिराते है इसको सेक कहते है । 

5)  विडालक -   पलकों को छोड़कर आंखों के ऊपर लेप किया जाता है । इसे विडालक कहते है । इसकी मात्रा मुख लेप के समान होती है । इसको लगाने से नेत्र बिल्ली या विडाल के नेत्र जैसे दिखते है । इस लिए इसे विडालक कहते है । 

विधि - मुलेठी , गैरिक , सैंधव लवण , दारुहरिद्रा , रसांजन सभी को १० ग्राम की मात्रा में लेकर इमामदस्ते में कूट लेते है । उसके बाद पत्थर की शिला पर पीसकर चन्दन जैसे पिष्टि बना लेते है । फिर इसका लेप बनाकर आंखों पर लगाते है 

प्रयोग - सभी प्रकार के नेत्र रोगों में । 

6)  अंजन - नेत्र रोगों के स्थानिक उपचारों में अंजन का प्रयोग किया जाता है । आमावस्था नष्ठ होने पर रोगों के अपने रूप में प्रगट होने पर वामन विरेचन से शुद्ध शरीर रोगी के नेत्र में अंगुली या शलाका से औषध का अंजन किया जाता है या लगाया जाता है । इसके तीन प्रकार होते है । लेखन अंजन - इसका प्रयोग सुबह के समय किया जाता है । रोपण अंजन - इसका प्रयोग शाम को करते है । प्रसादन - इसका प्रयोग रात के समय किया जाता है । 

मात्रा - लेखन - 2 शलाका , रोपण - 3 शलाका , प्रसादन - 4 शलाका ।  श्लेष्मिक व्याधियों में सुबह के समय , पैत्रिक व्याधि में रात में , वातिक व्याधि में शाम के समय अंजन लगाना चाहिए ।

No comments:

Post a Comment