Sunday, 10 September 2017

गर और दूषी विष की परिभाषा निदान एवं चिकित्सा

गर विष और दूषी विष की परिभाषा, निदान एवं चिकित्सा


गर विष की परिभाषा

स्थावर और जंगम विषों के अतिरिक्त एक संयोजक विष और होता है जिसे गर विष के नाम से जाना जाता है यह भी कई प्रकार के रोगों को उत्पन्न करता है | इसका विपाक शरीर में काफी देर से होता है इसीलिए यह शीघ्र प्राणघातक नहीं होता | आचार्य वाग्भट  के अनुसार  गर विष कई प्रकार के प्राणियों के अवयवों के मलों का, विरुद्ध वीर्य वाले द्रव्यों की भस्म का मन्द वीर्य वाले विषों का मेल है | 


गर विष के लक्षण -

1) आचार्य चरक के अनुसार गर विष खाये हुए मनुष्य का  शरीर पाण्डु वर्ण और कृश हो जाता है | 
२) जाठराग्नि मन्द हो जाती है | 
3) हृदय की धड़कन बढ़ जाती है | 
4) पेट फूलने लगता है | 
5) हाथ पैर में सूजन हो जाती है | 
6) रोगी उदर विकारों से ग्रस्त हो जाता है | 
7) यकृत और प्लीहा बढ़ जाते है | 
8) रोगी कास, श्वास तथा ज्वर से पीड़ित हो जाता है | 
9) रोगी सपने में गीदड़, बिल्ली,नेवला और सूखे वृक्षों व जलाशय देखता है |
10) रोगी अपने रंग को बदलता हुआ देखता है 
11) रोगी अपने आपको आलसी, वाणी और नाक-कान से विहीन समझता है | 
12) उसका शरीर व मन दोनों विकृत हो जाते है | 

गर विष की चिकित्सा -  

गर विष कृत्रिम विष है तथा यह असावधानी पूर्वक या धोखे से दिया होता है | यह तुरंत प्राणघातक नहीं होता इसीलिए इसका पता नहीं चलता | इस लिए थोड़ा सा संशय होने पर इसकी तुरंत चिकित्सा करनी चाहिए | रोगी से यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि उसने किसके साथ क्या तथा कब खाया और कितनी मात्रा में खाया है इन सब बातों का पता लगाने के बाद रोगी को तांबे की भस्म की थोड़ी मात्रा मधु के साथ मिलाकर देनी चाहिए इससे वमन होकर रोगी का हृदय शुद्ध हो जाता है | इसके बाद रोगी को स्वर्णमाक्षिक तथा स्वर्ण भस्म को शर्करा व मधु से देना चाहिए | गर विष से पैदा हुई प्यास, कास, हिक्का, ज्वर में घी व त्रिफला में भुना मकोय का शाक देना चाहिए | त्वचा के विकारों में रेणुका, चन्दन, प्रियंगु, खस इनको पीसकर लेप करना चाहिए | गर विष में दूध और घी का प्रयोग हितकर होता है | 

दूषी विष की परिभाषा

स्थावर, जंगम और कृत्रिम विष का वह अंश जो पूर्ण रूप से बाहर नहीं निकल पाता और विषनाशक औषधियों के प्रभाव से निर्जीव होकर शरीर में ही पड़ा रहता है और धीरे धीरे शरीर की धातुओं को दूषित करता रहता है इसी को दूषी विष कहते है | इस विष को मन्द विष भी कहा जाता है | यह विष मारक नहीं होता परन्तु शरीर में विकार पैदा करता है | ऐसे विष - पारद, सीसा, संखिया आदि है जो धीरे धीरे शरीर को दूषित कर रोग पैदा करते है | 

दूषी विष का निदान

प्रतिकूल देश, काल, अहितकर आहार - विहार, अत्यधिक परिश्रम, मैथुन, मानसिक द्वन्द, अधिक क्रोध आदि दूषी विष का निदान माने गये हैं | 

दूषी विष के लक्षण

दूषी विष से दूषित रक्त के कारण रोगी के शरीर पर फुंसियां, चकत्ते और कुष्ठ रोग पैदा होते हैं | इस प्रकार दूषी विष वातादि एक एक दोष को कुपित कर प्राण को नष्ट करता है | रोगी को नशा, अतिसार, अजीर्ण, अरोचक, वमन बेहोशी, प्यास आदि लक्षण होते है 

दूषी विष की चिकित्सा

दूषी विष से पीड़ित रोगी को सबसे पहले स्वेदन कराकर वमन करावें | रोगी को रोज़ाना दूषी विष नाशक औषधि पीने को दें पिप्पली, जटामांसी, शावर लोध्र, केवटीमोथा, हुलहुल, छोटी इलायची, स्वर्णगैरिक इनको मधु में मिलाकर सेवन कराना चाहिए | दूषी विष में ज्वर, दाह, हिक्का, आनाह, शुक्रक्षय, शोफ, आदि उपद्रवों की चिकित्सा भी साथ में करनी चाहिए | दूषी विष में तुत्थ भस्म, गंधक रसायन आदि विशेष रूप से लाभकारी है | 




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