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Thursday, 13 December 2018

लवणाम्ल का परिचय, मारक मात्रा, और चिकित्सा का वर्णन Lavanaaml ka parichay

Topic - 10 
लवणाम्ल का परिचय, मारक मात्रा, और चिकित्सा का वर्णन -


लवणाम्ल - HYDROCHLORIC ACID-


परिचय-

शुद्ध लवणाम्ल वर्ण रहित गैस पदार्थ है इसका रासायनिक सूत्र HCLहै | यह दाहक विष है |इसकी एक प्रकार की गन्ध होती है जिसके कारण क्षोभ होता है यह जल में अत्यंत घुलनशील है | औषधियों में प्रयोग होने वाला लवणाम्ल एक वर्ण रहित तरल पदार्थ होता है | अन्य अम्लों की अपेक्षा इसकी क्रिया मन्द होती है | इसका प्रयोग विभिन्न प्रकार की गैस बनाने में रंग बनाने में, अक्षरों को मिटाने के लिए किया जाता है | 


विषात्मक प्रयोग - 

दुष्ट प्रकृति के लोग ईर्ष्यावश इसका प्रयोग धोखे से चेहरे व शरीर पर इसे छिड़क देते है | जिससे वहां की त्वचा जल जाती है और शोथ व वेदना होती है | आत्महत्या के लिए इसका प्रयोग बहुत कम किया जाता है | 


मारक मात्रा और काल -

इसकी घातक मात्रा 100 ml से 150 ml मानी गई है | इसका मारक काल 12 से 24 घंटे तक माना गया है | 


विषाक्त लक्षण - 

इसके प्रयोग करने पर त्वचा व वस्त्र पर हल्का भूरे रंग का दाग पड़ जाता है | चमड़ी में शोथ एवं व्रण पैदा हो जाते है | इसको पी लेने के बाद अत्यधिक लालास्राव होता है | आक्षेप, प्रलाप, पक्षाघात इस अम्ल के विशेष लक्ष्ण होते है | मसूड़ों में शोथ पैदा हो जाता है तथा दांत हिलने लगते है | 


चिकित्सा - 

शरीर के जिस भाग में इसका प्रयोग किया जाता है वहां रुई या सूती कपड़े की सहायता से साफ़ जल से धोना चाहिए | इसके बाद घी आदि स्निग्ध पदार्थ लगा देना चाहिए ताकि दाह और पीड़ा शांत हो जाये | यदि व्यक्ति ने इस अम्ल को पी लिया हो तो उसको तुरंत नवनीत घी, जैतून तैल आदि मृदु स्निग्ध द्रव पीने को देना चाहिए | इसके बाद दाह शमन के लिए चूना लेकर उसको पानी में मिलाकर उसका प्रयोग करना चाहिए | रोगी को बर्फ चूसने को देनी चाहिए जले हुऐ अंगों पर दाह शामक औषधि प्रयोग करनी चाहिए |




Wednesday, 12 December 2018

गन्धकाम्ल का परिचय, मारक मात्रा, लक्षण और चिकित्सा का वर्णन Gandhkaaml ka parichay,

Topic - 10 
गन्धकाम्ल का परिचय, मारक मात्रा, लक्षण और चिकित्सा का वर्णन - 

गन्धकाम्ल  - SULPHURIC ACID-

परिचय- 


यह एक दाहक विष है जिसका रासायनिक सूत्र H2SO4 है जोकि रंगहीन द्रव के रूप में होता है | इसकी किसी प्रकार की गन्ध नहीं होती है और वायु में खुला छोड़ देने से इसमें से किसी प्रकार का कोई धुँआ नहीं निकलता, इस अम्ल को जल में मिलाने से यह उष्ण हो जाता है | इसका विशिष्ठ घनसत्व 1.84 होता है | 


सामान्य प्रयोग -


गंधकाम्ल एक बहुत उपयोगी द्रव्य है | इसका उपयोग रासायनिक द्रव्यों के निर्माण में, खाद बनाने में, पेट्रोलियम के शोधन में किया जाता है | ऐसा माना जाता है कि जिस देश में जितना गंधकाम्ल का उपयोग किया जाता है वह देश उतना ही समृद्धिशाली होता है | 


विषात्मक प्रयोग -


यह शरीर के  जिस अंग पर लगता है वहां पर विस्फोट, व्रण, दाह और वेदना पैदा कर देता है | त्वचा, वस्त्र, काग़ज़, लकड़ी या शरीर के अंग पर गंधकाम्ल गिरने पर वस्त्र और त्वचा झुलस जाते है | 


मारक मात्रा और घातक काल  -


गंधकाम्ल की घातक मात्रा 60 बून्द मानी गई है | सांद्र अम्ल = 50 से 100 ml, तनु अम्ल = 30 से 40 dl, समान मात्रा में जल मिलाने पर इसका घातक काल 4 से 24 घंटे का माना जाता है |


विषाक्त लक्षण -


शरीर के बाहरी अंगों पर लगने पर वह जल जाती है | त्वचा जलने पर तनाव होने लगता है | यदि इस विष का पान किया जाता है तो जीभ सफेद और गहरे भूरे रंग की हो जाती है | मुख अंदर से जल जाता है जिसके कारण दाह और पीड़ा होने लगती है | आमाशय व आंत्र में शोथ हो जाता है अत्यंत पीड़ा होती है और इनमें छिद्र हो जाते है और रक्त बहने लगता है |


चिकित्सा -


इस अम्ल का प्रयोग शरीर की त्वचा पर किया गया है तो जल्दी से रुई से या सूती कपड़े से पोंछ देना चाहिए फिर साफ़ जल से उसे धो देना चाहिए | फिर उस पर घी, जैतून या एरंड का तेल, ग्लिसरीन आदि स्निग्ध पदार्थ लगा देना चाहिए | इसके कारण दाह व पीड़ा का नाश हो जाता है | जिस रोगी ने गंधकाम्ल को मुख से प्रयोग किया हो तो उसको सबसे पहले दाह शमन  के लिए मृदु व स्निग्ध द्रव पिलाना चाहिए | इसके लिए नवनीत घी, जैतून तेल पीने को देना चाहिए | इसके इलावा 250 gm दूध में एक अंडे का सफेद भाग, कोयले का चूर्ण दो से तीन चम्मच और दो चम्मच घी मिलाकर पिलाना चाहिए | इसके इलावा टैनिक एसिड का प्रयोग भी प्रतिविष के रूप में किया जाता है | 



Saturday, 8 December 2018

शोरकाम्ल का परिचय, मारक मात्रा, लक्षण और चिकित्सा का वर्णन Shorkaaml ka parichay,

Topic - 10 
शोरकाम्ल का परिचय, मारक मात्रा, लक्षण और चिकित्सा का वर्णन -

शोरकाम्ल - NITRIC ACID-


परिचय - 

शोरकाम्ल दाहक विष है जिसे Nitric Acid कहा जाता है | इसका रसयानिक सूत्र HNO3 है | विशुद्ध शोरकाम्ल स्वच्छ , वर्ण रहित द्रव पदार्थ है | वायु में खुला छोड़ने पर इसमें से रंग रहित धुआँ निकलता है जिससे दम घुटने वाली दुर्गन्ध आती है | यह प्रबल भस्मकारक है | यह सोडियम प्लेटिनम स्वर्ण को छोड़कर बाकी धातुओं को अपने में विलीन कर लेता है| 


सामान्य प्रयोग - 

इसका प्रयोग लैब में विभिन्न प्रकार के acid और गैस के निर्माण के लिए किया जाता है | इसके इलावा धातु निर्माण में भी इसका प्रयोग किया जाता है | धातुओं के मिश्रण में धातु को अलग करने के लिए इसका प्रयोग करते है | 


मारक मात्रा और काल  - 

शोरकाम्ल की घातक मात्रा 100 ml मानी जाती है या 120 बूंद | इसका घातक काल 10 से 24 घंटे माना गया है | 


विषाक्त लक्षण-

इसके त्वचा के संपर्क में आते ही यह त्वचा को जला देता है और उस स्थान पर दग्ध वर्ण बन जाता है जिससे पीड़ा अधिक होती है और त्वचा में खिंचाव आ जाता है | इसके धुंए को सूंघने से सांस नली में शोथ हो जाता है | जिसके कारण साँस लेने में दिक्क़त होती है | 
इसको मुख से सेवन करने से होंठ और मुँह का अंदरूनी भाग जल जाता है और श्वेत वर्ण का दिखाई देता है दांतो का रंग पीला हो जाता है | पेट में जाकर यह सूजन कर देता है जिससे उदरशूल, अफारा आदि लक्षण होने लगते है | 


चिकित्सा - 

शरीर के बाहरी भाग पर इसका प्रभाव होने पर तुरंत उस हिस्से को जल से धो देना चाहिए फिर उस स्थान को अच्छी तरह साफ़ करके घी ,ग्लिसरीन का प्रयोग करना चाहिए | 
यदि व्यक्ति ने इसको पी लिया हो तो उसे जल्दी से मृदु ,स्निग्ध और दाहशामक औषधि पीने को देनी चाहिए इसके लिए घी, जैतून तेल और दूध का प्रयोग करना चाहिए | अम्ल के प्रभाव के शमन के लिए, कैल्शियम, मैग्नीशियम ऑक्साइड प्रत्येक 2-2 gm मिलाकर पिलाते रहें | इसके बाद 250 ml दूध और अंडे की सफेदी खाने को दे | बार - बार थोड़ी मात्रा में जलपान कराते रहें | दर्द के लिए मार्फीन का इंजेक्शन लगाते है |  



Thursday, 6 December 2018

आहार विष लक्षण, विरुद्ध द्रव्यों का सेवन Viruddh dravyon ka sevan

Topic -11 

आहार विष लक्षण, विरुद्ध द्रव्यों का सेवन | 


विरुद्ध द्रव्यों का सेवन- 


जिन द्रव्यों को परस्पर एक साथ मिलाकर खाने से या पीने से शरीर के अंदर जाकर विष वाला प्रभाव पैदा होता है उन द्रव्यों को विरुद्ध द्रव्य कहते है | अर्थात जिस द्रव्य को खाने से हमारे शरीर के अंदर के दोष अपने स्थान से उभर कर शरीर में ही फ़ैल जायें और बाहर नहीं निकले वे सभी आहार द्रव्य अहितकर होते है |  इसे ही विरुद्ध या वैरोधिक आहार कहा जाता है | इन द्रव्यों में कुछ द्रव्य परस्पर गुण विरुद्ध, कुछ संयोग विरुद्ध, कुछ संस्कार विरुद्ध और कुछ देश, काल, मात्रा आदि विरुद्ध होते है | 


1) गुण विरुद्ध - 


दो द्रव्यों के गुण विरुद्ध होने पर यदि इनको साथ में मिलाकर खाया जाता है तो वह गुण विरुद्ध होता है | जैसे - मछली और दूध दोनों के मधुर होने पर कफ की वृद्धि होती है | इसकी प्रकार दूध और कुल्थी का प्रयोग एक साथ करने से विपरीत प्रभाव देखने को मिलते है | 


2) संयोग विरुद्ध -


कुछ द्रव्यों को मिलाकर खाने से या एक को खाकर दूसरे को खाना संयोग विरुद्ध कहा जाता है | जैसे दूध के साथ अम्ल ( खट्टे ) द्रव्यों को खाने से यह दोषों का प्रकोप करते है जोकि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है | सत्तू खाने के बाद जल का सेवन, लहसुन और मूली खाने के बाद दूध नहीं पीना चाहिए | 


3) संस्कार विरुद्ध - 


जिन वस्तुओं को पकाकर या गर्म करके खाने से हमारे शरीर की हानि होती है उनके संस्कार विरुद्ध कहा जाता है | जैसे दही को गर्म करके खाना संस्कार विरुद्ध होता है | यह शरीर में कई दोष पैदा करता है | इसी प्रकार गर्म किया हुआ शहद ज़हर के समान माना गया है | 


4) देश विरुद्ध - 


हर प्रदेश की जलवायु अलग अलग होती है उनकी विशेषताओं को ध्यान में न रखकर खाद्य पदार्थों का सेवन करना देश विरुद्ध कहलाता है | जैसे - मरुप्रदेश में रुक्ष व तीक्ष्ण द्रव्यों का सेवन और अनूप प्रदेश में स्निग्ध व शीत वीर्य द्रव्यों का सेवन हानिकारक होता है | 


5) काल विरुद्ध - 


ऋतु,  आहार, और काल के अनुसार हमारे शरीर में दोषों की स्थिति बदलती रहती है | इसको अनदेखा कर भोजन खाना काल विरुद्ध कहलाता है | जैसे - रात को सत्तू खाना , सर्दी में शीत और रुक्ष पदार्थों का सेवन करना तथा गर्मी के मौसम में कटु और उष्ण द्रव्यों का सेवन करना हानिकारक होता है | 


6) मात्रा विरुद्ध - 


शहद और घी को समान मात्रा में मिलाकर खाना मात्रा विरुद्ध कहलाता है| 


7) स्वभाव विरुद्ध - 


कुछ द्रव्य स्वभाव से गुरु और ना पचने वाले होते है | जैसे - मलाई, रबड़ी, दूध, गुड़ और बेसन के बने तले पदार्थ आदि स्वभाव विरुद्ध द्रव्य कहलाते है |  



Wednesday, 5 December 2018

आहार विष, लक्षण, आहार विषाक्ता उपचार Aahaar vish lakshan,

Topic- 11 

आहार विष, लक्षण, आहार विषाक्ता उपचार-


आहार विष-


यदि भोजन का युक्ति पूर्वक सेवन किया जाये तो यह रसायन का फल देता है | शरीर को बलशाली बनाता है, परन्तु यदि भोजन को अयुक्ति या ठीक ढंग से सेवन नहीं किया जाता है तो यह विष का रूप होकर प्राणों का नाश करता है और विशाद पैदा करता है | आधुनिक विद्वानों ने भी आहार विष को दो भागों में बांटा है - 
  1. जीवाणुजन्य 
  2. अजीवाणुजन्य  
जीवाणुजन्य- आहार को अगर खुला रखा है, ठंडा है, ज्यादा समय का बना हुआ है तो उस पर जीवाणु का संक्रमण हो जाता है जिसके कारण वह दूषित हो जाता है | यदि इस आहार को खाया जाता है तो व्यक्ति रोग ग्रस्त या विषाक्त हो जाता है | 

अजीवाणुजन्य- भोजन को अविवेक पूर्ण या ठीक ढंग से ना ग्रहण करने से अजीवाणुजन्य विषाक्ता होती है | जिन बर्तनों में भोजन पकाया जाता है कई बार यही बर्तन विषाक्तता पैदा करते है |  जैसे - तांबे के बर्तन में रखा हुआ दहीं विषाक्त ( जहरीला ) हो जाता है | 

आहार विष लक्षण-  


विष युक्त भोजन खा लेने से कुछ लोगों को कुछ नहीं होता, और कुछ व्यक्ति भयंकर रूप से रोग ग्रस्त हो जाते है | जीवाणुजन्य भोजन खाने से विष का प्रभाव देर से पैदा होता है, क्योंकि जीवाणु आँतों के अंदर पहुँच कर अपनी विषाक्तता पैदा करने में 12 घण्टे का समय लगाते है | परन्तु अजीवाणुजन्य विषाक्तता का आक्रमण भोजन खाने के बाद अचानक से ही होता है | इसके प्रभाव से रोगी के शरीर में कंपकपी पैदा हो जाती है, रोगी को ज्वर ( बुखार ) मिचली, वमन और उदर ( पेट ) में तीव्र (तेज ) पीड़ा, अतिसार आदि लक्षण प्रकट हो जाते है | रोगी निर्जीव और दुर्बल ( कमज़ोर ) महसूस करता है | भोजन की विषाक्ता होने से शरीर के जोड़ों में पीड़ा, पेट दर्द और आन्त्रियों में शोथ आदि लक्षण पैदा होते है | 

आहार विषाक्ता उपचार-  


यदि किसी मनुष्य को आहार खाने से विषाक्ता हो जाये तो सबसे पहले उस मनुष्य के पेट का धावन करना चाहिए | ऐनिमा के द्वारा आन्त्रियों को साफ़ करके मल के द्वारा विष को बाहर निकालना चाहिए | जब तक भोजन की विषाक्ता के लक्षण शांत नहीं हो जाते, तब तक रोगी को कुछ भी खाने के लिए नहीं देना चाहिए | 




Tuesday, 4 December 2018

संखिया विष का ज्ञान, उसकी घातक मात्रा, घातक काल, विषाक्त लक्षण एवं चिकित्सा का वर्णन Sankhiya vish

संखिया विष का ज्ञान, उसकी घातक मात्रा, घातक काल, विषाक्त लक्षण एवं चिकित्सा का वर्णन | 

संखिया -

परिचय- यह एक घोर संक्षारक विष है | आयुर्वेद में इसे फेनाशम नाम से वर्णन किया गया है | यह भारी गंध स्वाद रहित शंख के समान सफेद वर्ण का ठोस पदार्थ है देखने में यह दानेदार पाउडर की तरह होता है | इसकी अपनी कोई गंध या स्वाद नहीं होता | यह जल में घुलनशील नहीं है | आग में डालने पर यह लहसुन की सी गंध देता है | यह पारदर्शी व अपारदर्शी दोनों स्वरूपों में पाया जाता है | अम्ल और तीव्र क्षारीय घोल में घुलनशील होता है | अंग्रेजी में इसे आर्सेनिक कहते है | इसके योगिक ही अधिक विषयुक्त होते है | 

भेद- आयुर्वेद में इसके अनेक भेदों का वर्णन किया गया है | जैसे 


  • स्फटिकाभ 
  • शंखाभ
  • हरिद्राभ 
  • पीताभ या रक्ताभ


इसमें से स्फटिकाभ संखिया  ही अधिक पाया जाता है | 

यौगिक-  

  • 1)आर्सेनिक आक्साइड - सोमल, सफेद संखिया 
  • 2) सल्फाइड आफ आर्सेनिक - हरताल, मैनशिल 
  • 3)कॉपर कम्पाउण्ड आफ आर्सेनिक - copper arsenic, copper aceto arsenite 

उपयोग-  1) इसका उपयोग मिश्रित धातु से एकल धातु के पृथक्क़रण के लिए किया जाता है | 
2) प्राय: कीटनाशक तथा विभिन्न जीवनाशक दवाइयों के बनाने में इसका प्रयोग किया जाता है | 
3) छपाई के रंगो में या अन्य रंगों को पक्का करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है | 
4) विभिन्न प्रकार के धातु प्रक्रिया तथा धातु शोधन मिश्र धातु के निर्माण में इसका प्रयोग किया जाता है 
5) संखिया का प्रयोग आत्महत्या या परहत्या करने के लिए किया जाता है 
6) गर्भपात  कराने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है | 
7) सामूहिक रूप में हत्या करने के लिए इसका प्रयोग पानी में मिलाकर किया जाता रहा है | 

घातक मात्रा- 3 ग्रेन  या 1.5mg  

घातक अवधि - 

  • 1) लगभग 1 से 3 घंटा तीव्र स्वरूप की विषाक्तता है | 
  • 2) जठरान्त्रिय  विषाक्तता  12 से 24 घंटे  में उत्पन्न होती है |

विषाक्तता के लक्षण- यह प्रयोग के कुछ समय बाद ही अपनी विषाक्तता का लक्षण प्रकट करने लगता है | तीव्र विषाक्तता में तो 15 से 30 मिनट में ही लक्षण व्यक्त होने लगते है | जिसके कारण कंठ उर और आमाशय में दाह पीड़ा होने लगती है उसके बाद हल्लास व् वमन की प्रथम अवस्था में खाया हुआ भोजन निकलता है | फिर हरे और पीले रंग का द्रव्य निकलता है | जिसमें अत्यंत पीड़ा होती है मुखशोष होता है और पानी पीने से बार बार वमन होता है | जिसके कारण हाथ-पैर में ऐठन होने लगती है | वृक्कों के प्रभावित होने के कारण मूत्र में कमी, मूत्र में रक्त आने लगता है और kidney failure हो जाता है | इसके साथ त्वचा का ठंडा होना, चिपचिपा होना, नाड़ी का कमजोर परन्तु गति में तेजी, श्वास का तीव्र चलना आदि लक्षण मिलते है जिसके अंत में स्तब्धता, सन्यास आक्षेप के बाद मृत्यु हो जाती है |

चिकित्सा- 1) यदि व्यक्ति ने संखिया खा लिया है तो तुरंत वमन करवायें  जिससे खाया हुआ विष शरीर से बाहर निकल जायेगा | वमन करवाने के लिए मदनफल का चूर्ण जल से सेवन करवा दें 
2) उलटी करवाने के बाद आमाशय प्रक्षालन करना चाहिए इसके लिए पोटैशियम परमेगनेट का घोल या फेरिक ऑक्साइड घोल देना चाहिए | 
3) आमाशय प्रक्षालन के बाद जान्तव व कठकोयले का चूर्ण और मैग्नीशियम  ऑक्साइड समान मात्रा में मिलाकर पिलाना चाहिए | 
4) यदि रोगी विष खाये हुए काफी समय हो चुका है तो आमाशय से अनावशोषित अंश को निकालने के लिए मैग्नीशियम सल्फेट या एरण्ड तैल का प्रयोग करवाना चाहिए | 
5) प्रतिविष के रूप में B.A.L का प्रयोग 3mg/kg की मात्रा (I.M)  में करना चाहिए  | 
6) विषशामक के रूप में अण्डे  का सफेद भाग, घी आदि का प्रयोग किया जाता है | यह आमाशय की श्लेष्मल कला को आवृत करते है और विष के अवशोषण को रोकते है |  



Sunday, 17 September 2017

प्राचीन काल में सामूहिक विष प्रयोग और उसके प्रतिकार | जल, जलाशय, भूमि, अन्न तृण, वायुमंडल में विष प्रयोग एवं प्रतिकार

प्राचीन काल में सामूहिक विष प्रयोग और उसके प्रतिकार | 
जल, जलाशय, भूमि, अन्न तृण, वायुमंडल में विष प्रयोग एवं प्रतिकार

सामूहिक विष प्रयोग

विष का प्रयोग एक व्यक्ति या सामूहिक रूप में किया जाता है | प्राचीन काल  में सामूहिक विष प्रयोग का वर्णन मिलता है | 
सामूहिक विष प्रयोग की ज़रूरत युद्ध के समय में होती है जैसे कि आधुनिक युग में भी कई प्रकार के तीव्र गैसों का प्रयोग शत्रुओं को नष्ट करने के लिए किया जाता है | आचार्य सुश्रुत के अनुसार कई बाद युद्ध में एक राजा दूसरे राज्य पर हमला करता था तो उसके शत्रु उसकी सेना को नष्ट करने के लिए विष का प्रयोग करते थे | उस अवस्था में मार्ग के पास पेड़-पौधे, पत्ते, जल, रास्ते की भूमि अन्न वायु आदि सभी विषाक्त हो जाते थे | ऐसी हालत में विष वैद्य की सहायता से दूषित पदार्थों का ज्ञान प्राप्त किया जाता था और दूषित हुए जीवों की चिकित्सा की जाती थी | 
  
विष से दूषित जल के लक्षण

विष से दूषित हुआ जल स्वाद रहित होता है | इसमें उष्णता होती है | और अनेक प्रकार की लहरें उठती है | यह जल झाग से युक्त होता है | पक्षी और मछलियां इस पानी से मर जाती है | इस जल को छूने से पीड़ा, कण्डु और अंग पर लगाने से शोथ हो जाता है | इसको पीने से दाह पैदा होती है, बेहोशी होती है | इस जल में मनुष्य, घोड़े हाथी जो भी नहाते है उनको वमन, मोह ज्वर दाह और शोफ हो जाता है | 
विष से दूषित जल के प्रतिकार

जल को शुद्ध करने के लिए धाय, अश्वकर्ण, विजयसार, पारिभद्र, पाटल, निर्गुन्डी, मोखा, अमलतास आदि को जलाकर इनकी ठंडी हुई भस्म को जल में छिड़क देते है  जिससे जल की विषाक्ता समाप्त हो जाती है | 

विष से दूषित भूमि के लक्षण

विष से दूषित भूमि कहीं कहीं पर जली हुई होती है उस पर उगे हुए घास पौधे मुरझा जाते है | कीड़े-मकौड़े, सर्प बिच्छू आदि उस भूमि पर मरे हुए दिखाई देते है | उस भूमि पर चलने से प्राणी और पशुओं को कण्डु हो जाता है | शोथ और जलन होती है और उनके रोम और नख गिर जाते है | 

विष  दूषित भूमि के प्रतिकार

इसके प्रतिकार के लिए सारिवा को ऐलादी गण के साथ सूरा में पीसकर दूध और काली मिटटी मिलाकर छिड़काव करना चाहिए | जो अंग दूषित हुआ हो वहां पर भी छिड़काव करना चाहिए |  पूरे मार्ग पर वायविडंग, पाठा, अपराजिता का कषाय बनाकर छिड़काव करे | 

विष से दूषित तृण या भोजन के लक्षण

घास - तृण और भोजन द्रव्यों के विष से दूषित हो जाने पर जो प्राणी इनका प्रयोग करता है वह शिथिल पड़ जाता है | और बेहोशी उल्टी और अतिसार से पीड़ित हो जाता है  जिसके कारण कभी कभी मृत्यु भी हो जाती है | 

विष से दूषित भोजन के प्रतिकार -

विष से दूषित हुए भोजन के प्रतिकार  के लिए विषनाशक लेपों का प्रयोग संगीत यंत्रों पर करके उनको बजाना चाहिए | ऐसा करने पर वायुमंडल शुद्ध हो जाता है | चांदी, पारा, स्वर्ण, सारिवा इनको बराबर भाग लेकर लेप करना चाहिए | इन संगीत यंत्रो की तीव्र गर्जना के शोर से घोर विष भी प्रभावहीन हो जाता है या नष्ट हो जाता है |

विष से दूषित वायुमंडल के लक्षण -

कई बार शत्रुओं के कारण हवा और वायुमंडल दोनों विषाक्त हो जाते है | विष से दूषित वायु के सबसे ज्यादा प्रभाव आँख और नाक पर पड़ते है | धुँआ और वायु दूषित होने से पक्षी भूमि पर गिरकर बेहोश हो जाते है और श्वास, खांसी,जुकाम, शिरोरोग व नेत्ररोग से ग्रसित हो जाते है |
विष से दूषित वायुमंडल के प्रतिकार

प्रदूषित वायुमंडल के प्रतिकार के लिए लाख , हल्दी , तमालपत्र , तगर , कूठ , प्रियंगु आदि को आग में डालकर उनके धूम से विषाक्त हवा और वायुमंडल को शुद्ध करना चाहिए | 




Sunday, 10 September 2017

गर और दूषी विष की परिभाषा निदान एवं चिकित्सा

गर विष और दूषी विष की परिभाषा, निदान एवं चिकित्सा


गर विष की परिभाषा

स्थावर और जंगम विषों के अतिरिक्त एक संयोजक विष और होता है जिसे गर विष के नाम से जाना जाता है यह भी कई प्रकार के रोगों को उत्पन्न करता है | इसका विपाक शरीर में काफी देर से होता है इसीलिए यह शीघ्र प्राणघातक नहीं होता | आचार्य वाग्भट  के अनुसार  गर विष कई प्रकार के प्राणियों के अवयवों के मलों का, विरुद्ध वीर्य वाले द्रव्यों की भस्म का मन्द वीर्य वाले विषों का मेल है | 


गर विष के लक्षण -

1) आचार्य चरक के अनुसार गर विष खाये हुए मनुष्य का  शरीर पाण्डु वर्ण और कृश हो जाता है | 
२) जाठराग्नि मन्द हो जाती है | 
3) हृदय की धड़कन बढ़ जाती है | 
4) पेट फूलने लगता है | 
5) हाथ पैर में सूजन हो जाती है | 
6) रोगी उदर विकारों से ग्रस्त हो जाता है | 
7) यकृत और प्लीहा बढ़ जाते है | 
8) रोगी कास, श्वास तथा ज्वर से पीड़ित हो जाता है | 
9) रोगी सपने में गीदड़, बिल्ली,नेवला और सूखे वृक्षों व जलाशय देखता है |
10) रोगी अपने रंग को बदलता हुआ देखता है 
11) रोगी अपने आपको आलसी, वाणी और नाक-कान से विहीन समझता है | 
12) उसका शरीर व मन दोनों विकृत हो जाते है | 

गर विष की चिकित्सा -  

गर विष कृत्रिम विष है तथा यह असावधानी पूर्वक या धोखे से दिया होता है | यह तुरंत प्राणघातक नहीं होता इसीलिए इसका पता नहीं चलता | इस लिए थोड़ा सा संशय होने पर इसकी तुरंत चिकित्सा करनी चाहिए | रोगी से यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि उसने किसके साथ क्या तथा कब खाया और कितनी मात्रा में खाया है इन सब बातों का पता लगाने के बाद रोगी को तांबे की भस्म की थोड़ी मात्रा मधु के साथ मिलाकर देनी चाहिए इससे वमन होकर रोगी का हृदय शुद्ध हो जाता है | इसके बाद रोगी को स्वर्णमाक्षिक तथा स्वर्ण भस्म को शर्करा व मधु से देना चाहिए | गर विष से पैदा हुई प्यास, कास, हिक्का, ज्वर में घी व त्रिफला में भुना मकोय का शाक देना चाहिए | त्वचा के विकारों में रेणुका, चन्दन, प्रियंगु, खस इनको पीसकर लेप करना चाहिए | गर विष में दूध और घी का प्रयोग हितकर होता है | 

दूषी विष की परिभाषा

स्थावर, जंगम और कृत्रिम विष का वह अंश जो पूर्ण रूप से बाहर नहीं निकल पाता और विषनाशक औषधियों के प्रभाव से निर्जीव होकर शरीर में ही पड़ा रहता है और धीरे धीरे शरीर की धातुओं को दूषित करता रहता है इसी को दूषी विष कहते है | इस विष को मन्द विष भी कहा जाता है | यह विष मारक नहीं होता परन्तु शरीर में विकार पैदा करता है | ऐसे विष - पारद, सीसा, संखिया आदि है जो धीरे धीरे शरीर को दूषित कर रोग पैदा करते है | 

दूषी विष का निदान

प्रतिकूल देश, काल, अहितकर आहार - विहार, अत्यधिक परिश्रम, मैथुन, मानसिक द्वन्द, अधिक क्रोध आदि दूषी विष का निदान माने गये हैं | 

दूषी विष के लक्षण

दूषी विष से दूषित रक्त के कारण रोगी के शरीर पर फुंसियां, चकत्ते और कुष्ठ रोग पैदा होते हैं | इस प्रकार दूषी विष वातादि एक एक दोष को कुपित कर प्राण को नष्ट करता है | रोगी को नशा, अतिसार, अजीर्ण, अरोचक, वमन बेहोशी, प्यास आदि लक्षण होते है 

दूषी विष की चिकित्सा

दूषी विष से पीड़ित रोगी को सबसे पहले स्वेदन कराकर वमन करावें | रोगी को रोज़ाना दूषी विष नाशक औषधि पीने को दें पिप्पली, जटामांसी, शावर लोध्र, केवटीमोथा, हुलहुल, छोटी इलायची, स्वर्णगैरिक इनको मधु में मिलाकर सेवन कराना चाहिए | दूषी विष में ज्वर, दाह, हिक्का, आनाह, शुक्रक्षय, शोफ, आदि उपद्रवों की चिकित्सा भी साथ में करनी चाहिए | दूषी विष में तुत्थ भस्म, गंधक रसायन आदि विशेष रूप से लाभकारी है | 




Saturday, 9 September 2017

अलर्क विष के लक्षण साध्यसाध्यता एवं चिकित्सा

अलर्क विष के लक्षण, साध्यसाध्यता एवं चिकित्सा - 

अलर्क विष - हिंसक पशुओं जैसे गीदड़, भेड़िया, भालू , चीता, कुत्ता आदि दांतों से काटने से उत्पन्न विष अलर्क विष कहलाता है | परन्तु सामान्यत: कुत्ते के काटने से ही यह विष होता है | इसीलिए कुत्ते के काटने से उत्पन्न विषक्तता को अलर्क विष कहा जाता है | आधुनिक विज्ञान में इसे Hydrophobia कहा जाता है | 

अलर्क विष के लक्षण - विषाक्त कुत्ते के काटने से दंश स्थान सुन्न हो जाता है, घाव से काला खून निकलता है | सर्वदैहिक लक्षणों में ह्रदय में पीड़ा, सिरदर्द, ज्वर, अंगों में जकड़ाहट, प्यास और संज्ञा का नाश होने लगता है | दंश स्थान पर कण्डू, चुभन जैसी पीड़ा, त्वचा का रंग बदलना और पूरे शरीर पर चकत्ते हो जाते है | 
जल संत्रास - Hydrophobia- जो मनुष्य कुत्ते  काटने के बाद जल के दर्शन मात्र से उसके स्पर्श से और उसका शब्द सुनने से ही डर जाता है उसे कुत्ते ने काटा  हो या नहीं उसे जल संत्रास कहते है | 
असाध्य लक्षण - आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार अलर्क विष से पीड़ित रोगी यदि पागल कुत्ते के समान चेष्टाएँ करने लगे जैसे अलर्क विष से पीड़ित कुत्ते के भौंकने के समान आवाज़  करने लगे और जल के दर्शन मात्र से डरने लगे तो उसे असाध्य समझना चाहिए | 

अलर्क विष चिकित्सा - जब किसी प्राणी को पागल कुत्ते ने काटा हो तो उसका तुरन्त उपचार चाहिए | 
आयुर्वेदिक चिकित्सा - 
1) सबसे पहले दंश स्थान को दबाकर दूषित रक्त को निकाल देना चाहिए | उसके बाद गर्म घी से दहन करके उसपर अलर्क विषनाशक अगद  का लेप लगा देना चाहिए | रोगी को पुराना घी पिलाना चाहिएऔर दंश स्थान पर लहसुन, मिर्च, पिप्पली और त्रिफला चूर्ण को पीसकर लगाना चाहिए | 
2) रोगी को शुद्ध कुचला, शुद्ध तेलिया विष, शुद्ध सुहागा समान भाग लेकर चूर्ण बनाकर 125 mg. की मात्रा में मुख द्वारा सेवन कराना चाहिए | धतूरे के पत्तों का स्वरस, घी, गुड़ और दूध मिलाकर रोगी  पीने को देना चाहिए | अग्नितुंडी वटी और भीमरूद्र रस अलर्क विष में उपयोगी औषधि है | 

आधुनिक चिकित्सा
1) सबसे पहले दंश स्थान को निचोड़कर रक्त निकाल देते है और उसे साबुन से या डेटोल आदि से अच्छी तरह से  पानी के साथ धोते है फिर उसमें पोटैशियम परमेगनेट भर देते है और हर रोज़ स्फ्रीट से साफ़ कर बीटाडीन  पट्टी बांधते है | दंश स्थान को खुला नहीं छोड़ते हैं  जिससे संक्रमण नहीं हो सके | 
2) रोगी को तुरंत  T.T injection I/M लगा देते है 
3) एंटी बायोटिक, एनालजेसिक औषधि का प्रयोग प्रतिदिन करते है जिससे घाव जल्दी सूख जाये | 
4) टीकाकरण - एंटी रेबीज में तीन प्रकार के वैक्सीन आते है - 
a) inj. Anti  Rabis Vaccine - 4 ml. intraperitonium, 14 दिन तक
अंतर्पेशीय लगाते हैं | 
b) Human Diploid cell strain vaccine - HDC
c) Purified chick Embryo cell Rabis vaccine ( PCEC Vaccine ) - 1 ML/. Intramuscular पहले , तीसरे ,सातवें , चौदहवें ,तथा तीसवें व नब्बे वें दिन लगाते हैं | 


Friday, 8 September 2017

सर्पदंश लक्षण एवं विभिन्न चिकित्सा का वर्णन

सर्पदंश लक्षण एवं विभिन्न  चिकित्सा का वर्णन | 

सर्पदंश के लक्षण - सर्पदंश के दो प्रकार के लक्षण होते हैं - 
(1) सामान्य लक्षण- सर्प काटने से दंश स्थान पर सूजन तथा वेदना होती है इसमें चुभने जैसा दर्द होता है इसमें गाँठ बन जाती और खुजली  होती है | दंश स्थान पर जलन होती है |  
(2) विशिष्ठ लक्षण -  आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार सर्पदंश के अलग अलग लक्षण होते हैं - 
१) दर्वीकर सर्पदंश के लक्षण - इस सर्पदंश से त्वचा, नख, नेत्र, दाँत, मुख, मूत्र और दंश स्थान काले पड़ जाते है | रुक्षता, सिर में भारीपन, सन्धियों में वेदना, कटि और ग्रीवा में दुर्लबता आ जाती है |  रोगी जम्भाई  लेने लगता है और उसके शरीर में कम्पन, शूल, ऐंठन, प्यास, लालस्त्राव, मुँह से झाग आनी  शुरू हो जाती है |  तथा सारे शरीर में वात के कारण अनेक प्रकार की वेदनाएँ होती है | 
२) मण्डली सर्पदंश के लक्षण - इस सर्पदंश से त्वचा, नख, मल, मूत्र आदि पीले हो जाते है, शीत की इच्छा और सारे अंगों में सन्ताप होता है | दाह, प्यास, मूर्च्छा, ज्वर, मांस का विदीर्ण, शोथ, दंश स्थान का सड़ना, सब कुछ पीला दिखाई  देता है | और अनेक प्रकार के पित्तजन्य वेदनाएँ  होती है | 
३) राजिमान सर्पदंश के लक्षण - इस सर्प के दंश के प्रभाव से त्वचा, नख आदि सफ़ेद हो जाते है | ठंड लगकर ज्वर होता है | रोमहर्ष अंगों में जड़ता, दंश के चारों ओर सूजन, मुख से कफ का गिरना, बार-बार वमन, नेत्रों में कण्डु श्वासावरोध, आंखों के आगे अँधेरा छा जाना और कफजन्य वेदनाएँ होती है | 
४) नर सर्पदंश के लक्षण - नर सर्प के काटने से रोगी ऊपर की और देखता है और शरीर के ऊपर के भाग को सीधा करके तथा दाहिने पैर पर जोर देकर चलता है | इसके विष का वेग दिन में तीव्र और रात को मंद रहता है |
५) मादा सर्पदंश के लक्षण - मादा सर्प के काटने पर रोगी नीचे की ओर देखता रहता है तथा अधोभाग पर बल देकर बायें पैर पर जोर देकर चलता है इस विष का वेग दिन में मंद और रात्रि में तीव्र होता है | 
६) नपुंसक सर्पदंश के लक्षण - इसके काटने से रोगी तिरछा और पीछे की ओर देखता है | रोगी अधिक बोलने लगता है और ज्वर तथा अतिसार के लक्षण प्रगट होने लगते है | 
७) गर्भिणी सर्पदंश के लक्षण - इसके काटने से रोगी का मुख पीला और शोथ युक्त हो जाता है | रोगी की जीभ और आँख काली हो जाती है | जम्भाई आती है, होंठ सूख जाते है, उदर में भारीपन और शिरोरोग के लक्षण प्रकट होने लगते है | क्रोध अधिक आता है | 
८) वृद्व सर्पदंश के लक्षण - विष देरी से चढ़ता है और वेदना होती है | 

चिकित्सा - सर्पदंश होने पर तत्काल चिकित्सा करनी चाहिए | जिससे विष का प्रभाव कम हो जाता है | सर्प विष की चिकत्सा के लिए निम्नलिखित उपक्रम  करते हैं - 
1) तत्कालिक चिकित्सा - सर्वप्रथम जिस अंग पर सर्प ने काटा हो वहा पर दंश स्थान से 4 से 7 अंगुल ऊपर किसी रस्सी, वस्र तथा वृक्ष की छाल आदि से कसकर बाँध देना चाहिए इससे विष का प्रभाव शरीर के ऊपर के अंगों में नहीं पहुँच पाता | ऐसा करने से विष रक्त के साथ बाहर निकल जाता है दंश स्थान पर चीरा लगाने के बाद किसी नली की सहायता से रक्त चूसकर बाहर निकालना चाहिए | इस क्रिया को अरिष्टाबन्धन व रक्तमोक्षण कहते है| 
2) निर्विषिकरण - दंश स्थान  चीरा लगाकर पोटैशियम परमैंगनेट के घोल से धोना चाहिए और दंश स्थान पर 1- 4 ग्राम की मात्रा में रखकर किसी वस्र से  कुछ देर के लिए बन्धन बांधना चाहिए | लेक्कर्सन औषधि विष को उदासीन कर देती है इसे दंश स्थान पर लगाना चाहिए  
3) प्रतिविष प्रयोग - प्रतिविष दो प्रकार के होते है -
Specific - विशिष्ट प्रतिविष अलग अलग प्रकार के सर्पविषों के लिए पृथक - पृथक तैयार किये जाते हैं तथा इनका प्रयोग काटने वाले सांप की स्पष्ट पहचान होने पर किया जाता है अन्यथा बहुसंयोजी ( Polyvalent ) ही काम में लाया जाता है | यह चार प्रकार के सर्पविषों नाग, सामान्य करैत, रसेल वाईपर तथा दन्तुर शल्कीय वाईपर विष को उदासीकरण करने में समर्थ होता है | इसकी 1 ml. की मात्रा नाग विष के 20 ml. को निष्प्रभावी बनाने की क्षमता रखती है | प्रतिविष का प्रयोग तब करना चाहिए जब दंश की विषाक्तता के स्पष्ट लक्षण व्यक्त हो रहे हो |   
4) लाक्षणिक चिकित्सा - विशिष्ट चिकित्सा के साथ विशेष लक्षणों के शमन की भी व्यवस्था करनी चाहिए | सर्प के काटने पर अधिक बेचैनी और वेदना होने पर वेदनानाशक औषधि  एस्प्रिन देनी चाहिए | तंत्रिकाओं में अवसाद की स्थिति होने पर एड्रीनलीन, क्लोराइड, स्ट्रिक्नीन आदि औषध देने चाहिए | 
     

Monday, 4 September 2017

जांगम विष - सर्पविष, सर्पों के भेद, सर्पदंश लक्षण एवं विभिन्न चिकित्सा का वर्णन

Topic - 6 

जांगम विष - सर्पविष, सर्पों के भेद, सर्पदंश लक्षण एवं विभिन्न  चिकित्सा का वर्णन | 

सर्पविष 
जंगम प्राणियों में पाये जाने वाले विष को जंगम विष कहते है | इन विषों में सर्प विष घातक और मारक होता है | सर्प सारे संसार में भूमि के सभी भागों में पाये जाते है | संसार में सर्पों की 2500 जातियां पायी जाती है | इनमें से भारत में 216 जातियां मिलती है जिनमें से मात्र 52 सांप विष वाले होते है |  सर्प एक डरपोक और आलसी जीव होता है जो किसी प्रकार क्रोधित होकर मनुष्य को काटता है सर्प का विष उसके सारे शरीर में होता है |   

सर्पों के भेद - आयुर्वेद में सर्प के दो भेद है -

1) दिव्य सर्प - वे सर्प जो आकाश में विचरण करते है जैसे वासुकी, तक्षक आदि और पौराणकि सांप |  

2) भौमिक सर्प - भूमि पर विचरण करने वाले साँपों को भौमिक सर्प कहते है |  इसके पांच भेद है - दर्वीकर, मण्डली, राजिमान, निर्विष, वैकरज्ज | 

इनमें से दर्वीकर 26 प्रकार के चक्र, हल, अंकुश का चिन्ह धारण करने वाले फनयुक्त और शीघ्र चलने वाले होते है इसका विष कटु रस और रुक्ष वीर्य होने के कारण वात को प्रकुपित करता है | 
मण्डली 22 प्रकार के अनेक प्रकार के मण्डलों से चित्रित  चपटे और मंद गति वाले अग्नि व सूर्य के समान चमक वाले होते है |  इसका विष अम्ल रस और उष्ण वीर्य होने के कारण पित्त को कुपित करता है | 
राजिमान 10 प्रकार के चिकनी अनेक प्रकार के रंगो की तिरछी और सीधी जाने वाली रेखाओं वाले होते हैं | इसका विष मधुर रस और शीत वीर्य होने से कफ को बढ़ाता है | और वैकरज्ज 3 प्रकार के होते है | 


लिंग भेद के अनुसार सर्पों के तीन भेद होते है -  

नर सांप - यह बड़े आकार के बड़ी आँखों वाले, बड़ी जीभ और ऊँची आवाज़ तथा फन वाले होते है | यह दिन में काटते है |  
मादा सांप - यह छोटे आकार के छोटी आँखों वाले तथा छोटी जीभ वाले और  इनका फन दिखाई नहीं देता यह रात्रि में काटते है | 
नपुंसक सांप - यह आयताकार चपल ,कोमल और मंद गति वाले सफेद चमक, तिरछे सिर वाले होते है जो संध्या काल में काटते हैं | 


जाति के अनुसार सर्पों के चार भेद होते है -

ब्राह्मण - यह मोती,चांदी की प्रभा तथा कपिल वर्ण,सुवर्ण कान्ति वाले सुगन्धित सर्प होते है | 
क्षत्रिय सर्प - यह स्निग्ध वर्ण, क्रोधी सूर्यचन्द्र की आकृति के होते है |   
वैश्य सर्प - यह काले,वज्र के समान लाल वर्ण के धूमवर्ण,कबूतर के समान होते है | 
शूद्र सर्प - यह भैंस, चीता के वर्ण के कठोर त्वचा वाले अनेक प्रकार के रंगों वाले होते है | 

सर्पदंश लक्षण एवं विभिन्न  चिकित्सा का वर्णन | 

सर्पदंश के लक्षण - सर्पदंश के दो प्रकार के लक्षण होते हैं - 
(1) सामान्य लक्षण- सर्प काटने से दंश स्थान पर सूजन तथा वेदना होती है इसमें चुभने जैसा दर्द होता है इसमें गाँठ बन जाती और खुजली  होती है | दंश स्थान पर जलन होती है |  
(2) विशिष्ठ लक्षण -  आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार सर्पदंश के अलग अलग लक्षण होते हैं - 
१) दर्वीकर सर्पदंश के लक्षण - इस सर्पदंश से त्वचा, नख, नेत्र, दाँत, मुख, मूत्र और दंश स्थान काले पड़ जाते है | रुक्षता, सिर में भारीपन, सन्धियों में वेदना, कटि और ग्रीवा में दुर्लबता आ जाती है |  रोगी जम्भाई  लेने लगता है और उसके शरीर में कम्पन, शूल, ऐंठन, प्यास, लालस्त्राव, मुँह से झाग आनी  शुरू हो जाती है |  तथा सारे शरीर में वात के कारण अनेक प्रकार की वेदनाएँ होती है | 
२) मण्डली सर्पदंश के लक्षण - इस सर्पदंश से त्वचा, नख, मल, मूत्र आदि पीले हो जाते है, शीत की इच्छा और सारे अंगों में सन्ताप होता है | दाह, प्यास, मूर्च्छा, ज्वर, मांस का विदीर्ण, शोथ, दंश स्थान का सड़ना, सब कुछ पीला दिखाई  देता है | और अनेक प्रकार के पित्तजन्य वेदनाएँ  होती है | 
३) राजिमान सर्पदंश के लक्षण - इस सर्प के दंश के प्रभाव से त्वचा, नख आदि सफ़ेद हो जाते है | ठंड लगकर ज्वर होता है | रोमहर्ष अंगों में जड़ता, दंश के चारों ओर सूजन, मुख से कफ का गिरना, बार-बार वमन, नेत्रों में कण्डु श्वासावरोध, आंखों के आगे अँधेरा छा जाना और कफजन्य वेदनाएँ होती है | 
४) नर सर्पदंश के लक्षण - नर सर्प के काटने से रोगी ऊपर की और देखता है और शरीर के ऊपर के भाग को सीधा करके तथा दाहिने पैर पर जोर देकर चलता है | इसके विष का वेग दिन में तीव्र और रात को मंद रहता है |
५) मादा सर्पदंश के लक्षण - मादा सर्प के काटने पर रोगी नीचे की ओर देखता रहता है तथा अधोभाग पर बल देकर बायें पैर पर जोर देकर चलता है इस विष का वेग दिन में मंद और रात्रि में तीव्र होता है | 
६) नपुंसक सर्पदंश के लक्षण - इसके काटने से रोगी तिरछा और पीछे की ओर देखता है | रोगी अधिक बोलने लगता है और ज्वर तथा अतिसार के लक्षण प्रगट होने लगते है | 
७) गर्भिणी सर्पदंश के लक्षण - इसके काटने से रोगी का मुख पीला और शोथ युक्त हो जाता है | रोगी की जीभ और आँख काली हो जाती है | जम्भाई आती है, होंठ सूख जाते है, उदर में भारीपन और शिरोरोग के लक्षण प्रकट होने लगते है | क्रोध अधिक आता है | 
८) वृद्व सर्पदंश के लक्षण - विष देरी से चढ़ता है और वेदना होती है | 

चिकित्सा - सर्पदंश होने पर तत्काल चिकित्सा करनी चाहिए | जिससे विष का प्रभाव कम हो जाता है | सर्प विष की चिकत्सा के लिए निम्नलिखित उपक्रम  करते हैं - 
1) तत्कालिक चिकित्सा - सर्वप्रथम जिस अंग पर सर्प ने काटा हो वहा पर दंश स्थान से 4 से 7 अंगुल ऊपर किसी रस्सी, वस्र तथा वृक्ष की छाल आदि से कसकर बाँध देना चाहिए इससे विष का प्रभाव शरीर के ऊपर के अंगों में नहीं पहुँच पाता | ऐसा करने से विष रक्त के साथ बाहर निकल जाता है दंश स्थान पर चीरा लगाने के बाद किसी नली की सहायता से रक्त चूसकर बाहर निकालना चाहिए | इस क्रिया को अरिष्टाबन्धन व रक्तमोक्षण कहते है| 
2) निर्विषिकरण - दंश स्थान  चीरा लगाकर पोटैशियम परमैंगनेट के घोल से धोना चाहिए और दंश स्थान पर 1- 4 ग्राम की मात्रा में रखकर किसी वस्र से  कुछ देर के लिए बन्धन बांधना चाहिए | लेक्कर्सन औषधि विष को उदासीन कर देती है इसे दंश स्थान पर लगाना चाहिए  
3) प्रतिविष प्रयोग - प्रतिविष दो प्रकार के होते है -
Specific - विशिष्ट प्रतिविष अलग अलग प्रकार के सर्पविषों के लिए पृथक - पृथक तैयार किये जाते हैं तथा इनका प्रयोग काटने वाले सांप की स्पष्ट पहचान होने पर किया जाता है अन्यथा बहुसंयोजी ( Polyvalent ) ही काम में लाया जाता है | यह चार प्रकार के सर्पविषों नाग, सामान्य करैत, रसेल वाईपर तथा दन्तुर शल्कीय वाईपर विष को उदासीकरण करने में समर्थ होता है | इसकी 1 ml. की मात्रा नाग विष के 20 ml. को निष्प्रभावी बनाने की क्षमता रखती है | प्रतिविष का प्रयोग तब करना चाहिए जब दंश की विषाक्तता के स्पष्ट लक्षण व्यक्त हो रहे हो |   
4) लाक्षणिक चिकित्सा - विशिष्ट चिकित्सा के साथ विशेष लक्षणों के शमन की भी व्यवस्था करनी चाहिए | सर्प के काटने पर अधिक बेचैनी और वेदना होने पर वेदनानाशक औषधि  एस्प्रिन देनी चाहिए | तंत्रिकाओं में अवसाद की स्थिति होने पर एड्रीनलीन, क्लोराइड, स्ट्रिक्नीन आदि औषध देने चाहिए | 


Tuesday, 4 July 2017

विभिन्न विषों का ज्ञान, उनकी घातक मात्रा, घातक काल, विषाक्त लक्षण एवं चिकित्सा का वर्णन l,

TOPIC - 5 


विभिन्न विषों का ज्ञान, उनकी घातक मात्रा, घातक काल, विषाक्त लक्षण एवं चिकित्सा का वर्णन | 



                                               संखिया 



परिचय- यह एक घोर संक्षारक विष है | आयुर्वेद में इसे फेनाशम नाम से वर्णन किया गया है | यह भारी गंध स्वाद रहित शंख के समान सफेद वर्ण का ठोस पदार्थ है देखने में यह दानेदार पाउडर की तरह होता है | इसकी अपनी कोई गंध या स्वाद नहीं होता | यह जल में घुलनशील नहीं है | आग में डालने पर यह लहसुन की सी गंध देता है | यह पारदर्शी व अपारदर्शी दोनों स्वरूपों में पाया जाता है | अम्ल और तीव्र क्षारीय घोल में घुलनशील होता है | अंग्रेजी में इसे आर्सेनिक कहते है | इसके योगिक ही अधिक विषयुक्त होते है | 



भेद- आयुर्वेद में इसके अनेक भेदों का वर्णन किया गया है | जैसे स्फटिकाभ, शंखाभ,हरिद्राभ, पीताभ या रक्ताभ | इसमें से स्फटिकाभ संखिया  ही अधिक पाया जाता है | 



यौगिक-  1)आर्सेनिक आक्साइड - सोमल, सफेद संखिया 

              2) सल्फाइड आफ आर्सेनिक - हरताल, मैनशिल 
              3) कॉपर कम्पाउण्ड आफ आर्सेनिक - copper arsenic, copper aceto arsenite 


उपयोग-  1) इसका उपयोग मिश्रित धातु से एकल धातु के पृथक्क़रण के लिए किया जाता है | 

2) प्राय: कीटनाशक तथा विभिन्न जीवनाशक दवाइयों के बनाने में इसका प्रयोग किया जाता है | 
3) छपाई के रंगो में या अन्य रंगों को पक्का करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है | 
4) विभिन्न प्रकार के धातु प्रक्रिया तथा धातु शोधन मिश्र धातु के निर्माण में इसका प्रयोग किया जाता है 
5) संखिया का प्रयोग आत्महत्या या परहत्या करने के लिए किया जाता है 
6) गर्भपात  कराने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है | 
7) सामूहिक रूप में हत्या करने के लिए इसका प्रयोग पानी में मिलाकर किया जाता रहा है | 


घातक मात्रा- 3 ग्रेन  या 1.5mg  



घातक अवधि - 1) लगभग 1 से 3 घंटा तीव्र स्वरूप की विषाक्तता है | 

2) जठरान्त्रिय  विषाक्तता  12 से 24 घंटे  में उत्पन्न होती है |

विषाक्तता के लक्षण- यह प्रयोग के कुछ समय बाद ही अपनी विषाक्तता का लक्षण प्रकट करने लगता है | तीव्र विषाक्तता में तो 15 से 30 मिनट में ही लक्षण व्यक्त होने लगते है | जिसके कारण कंठ उर और आमाशय में दाह पीड़ा होने लगती है उसके बाद हल्लास व् वमन की प्रथम अवस्था में खाया हुआ भोजन निकलता है | फिर हरे और पीले रंग का द्रव्य निकलता है | जिसमें अत्यंत पीड़ा होती है मुखशोष होता है और पानी पीने से बार बार वमन होता है | जिसके कारण हाथ-पैर में ऐठन होने लगती है | वृक्कों के प्रभावित होने के कारण मूत्र में कमी, मूत्र में रक्त आने लगता है और kidney failure हो जाता है | इसके साथ त्वचा का ठंडा होना, चिपचिपा होना, नाड़ी का कमजोर परन्तु गति में तेजी, श्वास का तीव्र चलना आदि लक्षण मिलते है जिसके अंत में स्तब्धता, सन्यास आक्षेप के बाद मृत्यु हो जाती है |

चिकित्सा- 1) यदि व्यक्ति ने संखिया खा लिया है तो तुरंत वमन करवायें  जिससे खाया हुआ विष शरीर से बाहर निकल जायेगा | वमन करवाने के लिए मदनफल का चूर्ण जल से सेवन करवा दें 
2) उलटी करवाने के बाद आमाशय प्रक्षालन करना चाहिए इसके लिए पोटैशियम परमेगनेट का घोल या फेरिक ऑक्साइड घोल देना चाहिए | 
3) आमाशय प्रक्षालन के बाद जान्तव व कठकोयले का चूर्ण और मैग्नीशियम  ऑक्साइड समान मात्रा में मिलाकर पिलाना चाहिए | 
4) यदि रोगी विष खाये हुए काफी समय हो चुका है तो आमाशय से अनावशोषित अंश को निकालने के लिए मैग्नीशियम सल्फेट या एरण्ड तैल का प्रयोग करवाना चाहिए | 
5) प्रतिविष के रूप में B.A.L का प्रयोग 3mg/kg की मात्रा (I.M)  में करना चाहिए  | 
6) विषशामक के रूप में अण्डे  का सफेद भाग, घी आदि का प्रयोग किया जाता है | यह आमाशय की श्लेष्मल कला को आवृत करते है और विष के अवशोषण को रोकते है |  

Thursday, 8 June 2017

विषदाता,विषकन्या विषाक्त अन्नपान आदि के लक्षण एवं प्रतिकार

TOPIC - 4 

विषदाता, विषकन्या, विषाक्त अन्नपान आदि के लक्षण एवं प्रतिकार 

                                           विषदाता 

विषदाता - किसी भी प्राणी को शारीरिक या मानसिक रूप से नुक्सान पहुंचाने के लिए जो व्यक्ति  जहर देता है वह विषदाता कहलाता है किसी की हत्या करने के प्रयोजन से विष / जहर देना अपराध है | आचार्य सुश्रुत के अनुसार विषदाता के निम्नलिखित लक्षण है | 

मनुष्य के संकेत या इशारों को समझने वाला चतुर, बुद्धिमान मनुष्य  
वाणी, चेष्टा, मुख के भाव आदि से विष देने वाले व्यक्ति या विषदाता को पहचान लेता है | यदि विष देने वाले व्यक्ति से प्रारंभिक  काल में पूछा जाये तो वह उत्तर नहीं देता है, बोलने की इच्छा करने पर वह घबऱा जाता है | पूछने पर व्यर्थ की बातें करता है | अपने आपको मुर्ख जैसा प्रदर्शित करता है, बिना बात के  हँसता रहता है उसका शरीर डर के कारण कंपता है कभी कभी वह डर से इधर उधर देखता है | उसका मुख उतरा रहता है बार बार अपने हाथों से  सिर के बाल सहलाता रहता है | वह दौड़ने का प्रयास करता है जाते समय वह पीछे मुड़कर देखता रहता है कि कोई उसको पकड़ने के लिए तो नहीं आ रहा है | 
ये सभी लक्षण व्यक्ति के अपराध बोध का कारण उत्पन्न मानसिक दुर्बलता से होता है | 
आचार्य चरक के अनुसार जो मनुष्य किसी को विष देने आता है उसको इस बात का भय रहता है कि वह पकड़ा न जाये | वह या तो अपने अपराध को छुपाने के लिए बहुत बोलता है या थोड़ा बोलता है उसके मुख का रंग उड़ा होता है | 

                                 विषकन्या

विषकन्या - प्राचीन काल  में राजा लोग अपने दुश्मनों की हत्या करने के लिए विषकन्या का भी प्रयोग किया करते थे | इसके लिए छोटी कन्या को जन्म से ही थोड़ा थोड़ा  विष का पान  कराया जाता था उसके बाद धीरे धीरे विष की मात्रा को बढ़ा दिया जाता था | इस प्रकार पली हुई कन्याएं बड़ी होकर इतनी ज़हरीली हो जाती थी कि उनके श्वास ( साँस ) और स्पर्श से ही शत्रु मर जाते थे और राजा लोग इनका प्रयोग दुश्मनों को मरने के लिए किया करते थे | विषकन्या क निम्नलिखित लक्षण होते है | 
1) विषकन्या के माथे पर पुष्प या कोमल पत्र रखने पर वह मुरझा जाते है | 
2) उसकी शय्या ( चारपाई ) के खटमल, जुएँ और कीट मर जाते है| 
3)  उसके स्नान के जल से मक्खियां और मच्छर मर जाते है | 
4) विषकन्या जिसको भी स्पर्श करती है उसकी मृत्यु हो जाती है | 
 विषकन्या का प्रयोग प्राचीन काल में व्यापक रूप में युद्धों में होता था विषकन्या का प्रयोग अनेक युद्धों में करने का वर्णन मिलता है | 

        विषाक्त अन्नपान आदि के लक्षण एवं प्रतिकार 

अन्न प्राणियों के प्राण है | यदि इसमें विष मिला हो तो ये प्राणो का नाश कर देता है | कुछ लोग आहार द्रव्यों के प्रति बड़े स्वेदनशील होते है विष वाले द्रव्यों के सेवन से उसी समय लक्षण उत्पन्न होने लगते है | जिसके कारण उन्हें वमन अतिसार आदि होने लगते है सिर चकराता है | 

विष मिश्रित अन्न के लक्षण - विष मिश्रित अन्न को खाने से मक्खियां और कौवे मर जाते है | ऐसे अन्न को आग पर डालने से चट चट शब्द अधिक बार होता है | आग की लपट का रंग हरा और नीला होता है और ज्वाला फटी हुई अलग अलग होती है इसका प्रभाव असहनीय होता है धुआं तेज होता है और ये आग जल्दी बुझ जाती है | विषयुक्त अन्न का सेवन करने से चकोर नामक पक्षी की आँखों की लालिमा नष्ट हो जाती है और जीवजीवक नामक प्राणी जल्दी मर जाता है | तोता और मैना रोने लगते है अगर बंदर विष वाला भोजन खा लेता है तो वह मल त्याग कर  देता है | इस प्रकार विष युक्त भोजन को पहचान सकते है | 

प्रतिकार - 1) सबसे पहले हमे विषयुक्त भोजन को पहचान करने के  ढंग के बारे में पता होना ज़रूरी है | 
2) बासी भोजन और फल सब्जियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए | 
3) फल और सब्जियों को धोकर कर प्रयोग करना चाहिए | 
4) कीटनाशक औषधियों का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए | 
5) तांबे और कांस्य, पीतल के बर्तनो में खाद्य पदार्थ नहीं रखने चाहिए | 
6) बोतल बंद और पैक किये हुए पदार्थों का प्रयोग कम करना चाहिए | 
7) खान पान वाली वस्तुओं को हमेशा ढककर रखना चाहिए ताकि उसमे विषैले कीट आदि ना पड़े | 
8) घर में विष मिश्रित औषधि और दूसरे द्रव्य अलमारी में बंद करके लेबल लगा कर  रखने चाहिए | 
9) कुछ खाने वाले अन्न और जल जन्तु भी विषयुक्त होते है इनको बिना उबाले हुए और अधिक मात्रा में नहीं खाना चाहिए | 

Saturday, 28 January 2017

विष का प्रभाव,निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त

 TOPIC - 3 

विष का प्रभाव,निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त (आधुनिक एवं प्राचीन मतानुसार )
                  
                          विष का प्रभाव   

विष का प्रभाव - आयुर्वेद में विष के दस गुण बताये है जिनका मनुष्य के शरीर पर विशेष प्रभाव पड़ता है जो निम्नलिखित है। 
1) लघु - जो शरीर में जाकर लघुता पैदा करे जल्दी से पच जाये और शरीर की क्रियाओं में तीव्रता लाते है उसे लघु कहते है। 
2) रुक्ष -  जो शरीर में जाकर द्रव का शोषण, रुक्षता, जड़ता, बल को कम करता है और स्तम्भन पैदा करता है उसे रुक्ष कहते है । 
3) आशु - जो शरीर में जाकर जल्दी से फैल जाये उसे आशुकारी या आशु कहते है। 
4) विशद - जो शरीर में जाकर दोष,धातु, मल, को स्वच्छता और विमलता प्रधान करे उसे विशद कहते है।    
5) व्यवायी - जो बिना पके ही सारे शरीर में फैल जावे फिर उसका पाचन हो उसे व्यवायी कहते है। 
6) तीक्ष्ण - जो शरीर में जाकर शीघ्रता से काम करे और शरीर में दाह, पाक, और लेखन का काम करे उसे तीक्ष्ण कहते है। 
7) विकासी - जो समस्त शरीर में व्याप्त होकर ओज धातु को सुखाकर शरीर के रस से लेकर वीर्य धातुओं को अलग करके सन्धिबन्धनों को ढीला करता है उसे विकासी कहते है। 
8) सूक्ष्म - जो शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश करके अपनी क्रिया तेजी से करता है उसे सूक्ष्म कहते है। 
9) उष्ण - जो शरीर में जाकर उष्णता पैदा करे और सारक, पाचक, तृषा, दाह और स्वेदजनक हो उसे उष्ण कहते है।
10) अनिर्देश्य रस - जिसके रस को प्रायः बताया नही जा सकता उसे अनिर्देश्य रस कहा जाता है। 

विष का निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त - विष का निदान न केवल चिकित्सा की दृष्टि से यदपि वैधानिक दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। जितनी जल्दी हो सके यह पता लगाना चाहिए कि रोगी को कौन सा विष कितनी मात्रा में दिया गया है। और किसके द्वारा दिया गया है। जितना जल्दी इन बातों का ज्ञान होगा उतनी जल्दी चिकित्सा आरम्भ की जा सकती है। रोगी के प्राण बचाना चिकित्सक का सबसे पहला कर्तव्य है। प्रधान रूप से विष खाने पर वमन, अतिसार, आक्षेप, मूर्च्छा, तीव्र उदरशूल, अफारा, पसीना आना, शरीर का नीला पड़ना, श्वास की गति में परिवर्तन, घबराहट, मूत्र में रक्त आना यह सब लक्षण पाये जाते है। इसलिए चिकित्सक को भेदक चिकित्सा का पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसे रोगी द्वारा खाये गये अन्न, पेय, औषधि, वमन, विरेचन, मूत्र, पुरीष की भी जांच करानी चाहिए। इससे विष की चिकित्सा करने में सहायता मिलती है। 

प्राचीन मतानुसार विष की चिकित्सा - विष की चिकित्सा के लिए प्राचीन मतानुसार 24 प्रकार की विधियां बताई गयी है। 
1) मन्त्र - प्राचीन समय में मन्त्रों से विष की चिकित्सा की जाती है। 
2) अरिष्टाबन्धन - अरिष्टाबन्धन का अर्थ है पट्टी बांधना । जब सर्प किसी व्यक्ति को काटता है । तो उसका विष रक्त का सहारा लेकर सम्पूर्ण शरीर में फैलता है । उस विष को आगे न फैलने से रोकने के लिए दंश स्थान के ऊपर चार अंगुल की दूरी पर अरिष्टाबन्धन करना चाहिए। 
3) उत्कर्तन ( incision ) - दंश स्थान पर चीरा लगाना उत्कर्तन कहलाता है। इससे विष दंश स्थान से आगे नही बढ़ता । 
4) निष्पीड़न ( compression ) - रक्त को निचोड़कर या दबाकर  दंश स्थान से बाहर निकालना निष्पीड़न कहलाता है। जिससे विश्वीश शरीर के बाकी अंगों तक नही पहुँच पाता। 
5) चूषण ( suction ) - चूषण का अर्थ है चूसना । विष को दंश स्थान से चूसकर बाहर निकालना चूषण कहलाता है। 
6) दहन - इसका अर्थ है जलाना । दंश स्थान पर छेदन और रक्तचूषण के बाद दहन कर्म करते है। दंश स्थान को लोहे की शलाका से जलाकर विष से संक्रमित स्थान को शुद्ध किया जाता है । 
7) परिषेचन - रोगी होश में रहे इसके लिए उसके मुख पर बार बार ठंडे पानी से छींटे मारना परिषेचन कहलाता है। 
8) अवगाहन - रोगी को शीतल जल से स्नान करना चाहिए या शीतल जल से भिगोये कपड़े से सम्पूर्ण शरीर को पोंछना अवगाहन है। 
9) रक्तमोक्षण - जब विष रोगी के शरीर में जाता है तो सबसे पहले रक्त को दूषित करता है। इसलिए दूषित रक्त को निकालने के लिए दंश  के ऊपर श्रृंग, जलोका, अलाबू का प्रयोग करके रक्तमोक्षण किया जाता है। 
10) वमन और विरेचन - खाया हुआ विष वमन और विरेचन द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है। इसके लिए रोगी का उदार प्रक्षालन किया जाता है। और एनीमा करके उसका पेट साफ किया जाता है। 
11) उपधान और प्रधमन - जब विष के द्वारा रोगी मरने के नजदीक पहुँच गया हो तो उसके सिर पर काकपद के आकार का चीरा लगाकर रक्तमोक्षण किया जाता है। इसी को उपधान कहते है। और इस व्रण के अंदर किसी नली में औषधि चूर्ण रखकर फंक मारकर छिड़कना प्रधमन कहलाता है। 
12) हृदयावरण - हृदयावरण का अर्थ है हृदय की रक्षा करना । शरीर में हृदय और मस्तिष्क बहुत महत्वपूर्ण अंग है । इसलिए विष के प्रभाव से इसकी रक्षा करना ज़रूरी होता है। इसके लिए रोगी को मधु और घी का पान करवाना चाहिए। कई बार बकरे का रक्त भी पिलाया जाता है। 
13) अंजन और नस्य - विष के प्रभाव से जब रोगी की नजर ख़राब होती है तो उसकी चिकित्सा अंजन और नस्य से करनी चाहिए। जब विष के प्रभाव से रोगी की पलकों में सूजन आ गयी हो, आंखे मलिन हो गई हो आँख कान नाक और कंठ में कफ का अवरोध शुरू हो गया हो तो अंजन और नस्य का प्रयोग करना चाहिए। 
14) लेह - लेह या अवलेह से अर्थ वह द्रव्य जिसे चाटकर खाया जाता है । विष से पीड़ित रोगी का मुख और कंठ सूखता है इसलिए लेहों को प्रयोग में लाना चाहिए। जैसे मधु और घी । इसे आसानी से रोगी निगल सकता है। 
15) धूम प्रयोग - धूम का प्रयोग तब किया जाता है जब रोगी बेहोशी की अवस्था में हो इसके लिए कई प्रकार की औषिधियों का धुआं देते है । जिससे रोगी के बन्द स्रोतखुल जाते है और श्वास की गति भी ठीक हो जाती है। यह विष का नाश करने वाला धुआं रोगी के अंदर जाकर विष को खत्म करता है। इसके लिए छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, अरहर के पत्तों का धूम प्रयोग किया जाता है। 
16) प्रतिविष - जब रोगी अंतिम और असाध्य अवस्था में पहुँच जाये तो अंतिम उपाय के रूप में जंगम विष से ग्रस्त रोगी को स्थावर विष का पान कराया जाता है और स्थावर विष से ग्रस्त रोगी को जंगम विष प्रतिविष के रूप में दिया जाता है। 
17) संज्ञास्थापन - जब कोई मनुष्य विष खा लेता है तो उसको होश में लाये रखना ज़रूरी है। जिस रोगी की आँखें खुली की खुली रह गई हो, गर्दन लटक गई हो उसे तीव्र औषधि द्रव्य सुंघाकर होश में लाना चाहिए । हाथ से माथे पर अंगुलियों से ताड़न करना चाहिए। कुशल वैधो से उसके सिर से रक्त निकालकर सिर पर अच्छे अगदों का लेप करना चाहिए।  
18) मृतसंजीवन - मृतसंजीवन अंगद का प्रयोग आचार्य चरक ने बताया है उनके अनुसार असवर्ग, केवटी मोथा, गणिवन, फिटकरी, छरीला, गोरेचन, तगर, खस की पत्तियां, केशर, जटामांसी, तुलसी की मंजरी, इलायची, हरताल, खेर, शिरीष के फूल, गन्ध विरोजा, पदम् चारटी, विशाला, देवदारु, कमल का केसर, सावर लोध, मैनशिल, रेणुका, चमेली के फूल का रस, मदार के फूल का रस, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, पीपर, लाख, सुगन्धवाला, मुदगपर्णी, चंदन, मुलेठी, मैनफल, निर्गुन्डी की पत्ती, अमलतास, लोध्र, अपामार्ग, प्रियंगु के फूल, रास्ना, वायवडिंग इन सब द्रव्यों को पुष्प नक्षत्र में एकत्रित करके समभाग में लेकर पीसकर गोली बना लेते है। इस गोली के प्रयोग से सब प्रकार के विष नष्ट होते है। 

आधुनिक मतानुसार विष चिकित्सा - आधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार विष की निम्नलिखित चिकित्सा  चाहिए। 
1) पुनर्जीवन - RESUSCITATION
2) अवशोषित विष का निष्कासन - REMOVAL OF UNABSORBED POISON   
3) प्रतिविष का प्रयोग - USE OF ANTI DOTES
4) अवशोषित विष का बहिष्करण - ELIMINATION OF ABSORBED POISON 
5) लक्षणों व् उपद्रवों का उपचार - TREATMENT OF SYMPTOMS AND COMPLICATIONS
6) रोगी के स्वास्थ्य का अनुकरण - MANTENANCE OF GENERAL HEATH OF PATIENT 

यदि रोगी बेहोश हो गया हो तो उसको होश में लाने के लिए शीतल जल से मुख पर छींटे मारने चाहिए अगर साँस रुक रहा हो तो कृत्रिम शवास देना चाहिए । अगर रोगी का रक्तचाप कम हो गया हो तो डेक्सट्रोज़ या प्रोटीन घोल देना चाहिए। अगर bp  बढ़ गया हो तो डोपामाइन इंजेक्ट करना चाहिए। उसके बाद अवशोषित विष को शरीर से निकलने के लिए  वमन विरेचन कराना चाहिए । इसके लिए पोटैशियम परमैगनेट, मैगनीशियम सल्फ़ेट, सोडियम सल्फ़ेट, तरल पैराफिन आदि द्रव्यों का प्रयोग कराते है। जो विष वमन विरेचन के बाद भी शरीर से नही निकलते उसके लिए प्रतिकारक औषधियों का प्रयोग करते है। यदि विष का सेवन किये हुए 6 घण्टे से ऊपर हो गया हो और सभी विधियों का प्रयोग करने पर भी लाभ नही मिल रहा हो तो शरीर में विष अवशोषित हो गया है ऐसा समझ लेना चाहिए। इस समय मूत्रल द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए जिससे विष शरीर से बाहर निकल  जाय। 
यदि चिकित्सक को विष का ज्ञान न हो तो विष खाये हुए रोगी के लक्षण देखकर उसकी चिकित्सा विवेकपूर्ण करनी चाहिए। 
विष की चिकित्सा में जीवनीय शक्ति का ह्रास होता है इसलिए मधुर, बल्य और संतुलित भोजन करवाना चाहिए और चिकित्सक द्वारा रोगी के स्वास्थ्य का अनुकरण करते रहना रहना चाहिए। 

Friday, 13 January 2017

विष के भेद - स्थावर, जांगम विष एवं उनके अधिष्ठान, विष के वेगों का वर्णन ।

                        SUBJECT - AGAD TANTRA

TOPIC-2 

विष के भेद - स्थावर, जांगम विष एवं उनके अधिष्ठान, विष के वेगों का वर्णन।

विष की परिभाषा - जो द्रव्य प्राणी के मनोदैहिक तंत्र के संपर्क में आकर उसके शरीर में प्रवेश करके विषाद ( दुःख ) पैदा करता है या उसके प्राणों का नाश करता है उसको विष कहते है । 

विष के भेद - आयुर्वेद में विष को दो भागों में बांटा गया है । 
                     1) अकृत्रिम या स्वभाविक विष 
                     2) कृत्रिम या संयोगज विष 

1) अकृत्रिम विष - जो विष अपने मूलरूप में ही पाये जाते है उन्हें अकृत्रिम विष कहते है । यह दो प्रकार के होते है । 
a) स्थावर विष 
b) जांगम विष

a) स्थावर विष - जो स्थावर रूप में स्थावर वस्तुओं में पाया जाता है। उसे स्थावर विष कहा जाता है। इसके आगे दो और भेद है ।  
1) वानस्पतिक विष - जो विष हमें पेड़ पौधों से प्राप्त होता है उसको वानस्पतिक विष कहते है । जैसे - वत्सनाभ, कुचला, भांग इत्यादि । 
2 ) खनिज या धातुज विष - जो विष खनिज और धातुओं से मिलते है उन्हें खनिज या धातुज विष कहते है। जैसे - पारा, वंग आदि । 

b) जांगम विष - जो विष हमें जीव जन्तुओं से प्राप्त होता है उसे जांगम विष कहते है । जैसे - सांप, बिच्छु, अलर्क ( कुत्ता ) आदि ।

2) कृत्रिम या संयोगज विष - जो विष दो या दो से अधिक द्रव्यों के भौतिक या रसायनिक संगठन से मिलकर बनते है उसे कृत्रिम विष कहते है । यह भी दो प्रकार के होते है । 
(a)  गर विष- एक से अधिक द्रव्यों के संयोग से बने हुए विष को गर विष कहते है । जैसे मछली का मांस और दूध का संयोग, मधु और घी की समान मात्रा विष के समान है ।
(b)  दूषी विष- विषयुक्त द्रव्य शरीर में पड़ा रहकर धीरे धीरे शरीर की धातुओं विशेषकर रक्त ( blood) को दूषित करके मृत्यु  कर देते है । उसे दूषी विष कहते है  
                                
                                                         विष 
                                ______________!_____________
                                !                                                      ! 
                      अकृत्रिम विष                                   कृत्रिम विष 
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            !                                !                      !                              !      
             स्थावर विष        जांगम विष            गर विष                 दूषी विष
     ______!______ 
       !                        !  
वानस्पतिक      खनिज ,धातुज विष   
                   
                                   स्थावर विष के अधिष्ठान 

स्थावर विष के अधिष्ठान - स्थावर द्रव्यों में पाये जाने वाले विष को स्थावर विष कहते है । और स्थावर द्रव्यों के जिन भागों में विष पाया जाता है उनको विष का अधिष्ठान माना गया है । स्थावर विष के 10 अधिष्ठान माने गये है। 
1) मूल विष - जिन वनस्पतियों की जड़ या मूल में विष होता है उसे मूल विष कहा जाता है। जैसे - कनेर , गूंजा, सुगन्ध, विजया आदि। 
2) पत्र विष - जिन पौधों के पत्तों में विष पाया जाता है उसको पत्र विष कहते है। जैसे- विषपत्रिका, लम्बा, वरदारू, करम्भ, महाकरम्भ आदि । 
3) फल विष - जिन वृक्षो के फलों में विष होता है उसको फल विष कहते है। जैसे- वेणुका, करम्भ, चर्मरी, सरपाक आदि। 
4) पुष्प विष - कुछ पौधों के फूलों में विष होता है । उसे पुष्प विष कहा जाता है । जैसे - वेत्र, कादम्ब, करम्भ, महाकरम्भ । 
5) त्वक, सार, निर्यास विष - जिन पौधों की शाखाओं के रस में गोंद में विष पाया जाता है उनको त्वक,सार,निर्यास विष कहते है । जैसे - करघाट, करम्भ, नन्दन, नाराचक, कर्तरी आदि। 
6) क्षीर विष - कई पेड़ पौधों से दूध निकलता है जो विष वाला ( ज़हरीला) होता है । उसे क्षीर विष कहते है । जैसे - स्नुही, जलक्षीरी, आक आदि । 
7) धातु विष - कुछ धातुयें भी विषैली होती है जिनको खाने से प्राणी की मृत्यु हो जाती है । जैसे - संखियाँ, हरताल, फेनाश्म । 
8) कन्द विष - कुछ कन्द ( घास ) भी विष वाले होते है उनको खाने से मनुष्य तथा पशुओं की मृत्यु हो जाती है । जैसे - कालकूट, वत्सनाभ, सर्षप, पालक, वैराटक आदि। 
     
                                  जांगम विष के अधिष्ठान
                               
जांगम विष के अधिष्ठान - जंगम प्राणियों में पाये जाने वाले विष को जंगम विष कहते है । सांप, कीट, चूहा, कुत्ता, छिपकली, मेंढक आदि दांतों वाले प्राणी है । इनकी दाढों से पैदा होने वाले विष को जांगम विष कहते है। इसके 16 अधिष्ठान होते है । (1) दृष्टि ( नज़र ), 2) निःश्वास , 3) नाख़ुन, 4) दाँत , 5) मूत्र , 6) पुरीष , 7) शुक्र , 8) लालास्राव , 9) आर्तव , 10) मुख , 11) संदंश (डंक ), 12) विशर्धित, 13) तुण्ड अस्थि , 14) पित्त , 15) शूक , 16) शव  

                           विष के वेगों का वर्णन 

विष के वेगों का वर्णन-  आचार्य सुश्रुत ने विष के 7 वेग तथा चरक ने 8 वेग बताये है। प्राणियों में विष के वेग तथा लक्ष्ण निम्नलिखित अनुसार बताये गये है । 
1) प्रथम वेग में रस धातु की दुष्टि होने के कारण प्यास, मोह लगती है। दांत खट्टे हो जाते है। मुख से लालास्राव होता है । वमन, सुस्ती आदि लक्ष्ण पैदा होते है। 
2) दूसरे वेग में विष रक्त धातु को दूषित करके शरीर का रंग खराब करता है। सिरदर्द , चक्कर आना, कंपकंपी, बेहोशी, जृम्भा आदि रोग होते है। 
3) तीसरे वेग में विष मांस धातु के दुष्ट होने से शरीर पर गोल गोल चकत्ते पड़ जाते है । खुजली, सूजन, कोठ, आदि लक्षण प्रकट होते है।  
4) चौथे वेग में वाट आदि धातुओं के दुष्ट होने से वमन , दाह , अंगों में दर्द, मूर्च्छा होती है। 
5) पांचवे वेग में दृष्टि मंडलों के दूषित होने से वस्तु नीले रंग की दिखाई देती है । और आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है। 
6) छठे वेग में हिचकियाँ होने लगती है । 
7) सातवें वेग में कन्धा लटक जाता है। 
8) आठवें वेग में श्वासावरोध होने से मृत्यु हो जाती है। 

पशुओं में विष के वेग -  पशुओं में विष के चार वेग होते है । पहले वेग में शरीर में पीड़ा होती है । चक्कर आते है । दूसरे वेग में पशु काँपने लगता है\ तीसरे वेग में भोजन के प्रति उदासीन तथा निष्क्रिय हो जाता है। और चौथे वेग में श्वास ( साँस ) की गति में वृद्धि होने से मृत्यु हो जाती है। 

पक्षियों में विष के वेग -  पक्षियों में विष के तीन वेग होते है। पहले वेग में पक्षी को दाह होने लगता है। दूसरे वेग में चक्कर आते है। तीसरे वेग में पक्षी के सारे शरीर के अंग ढीले पड़ जाते है और उसकी मृत्यु  जाती है।