क्रियाकल्प : आश्च्योतन, पुटपाक, तर्पण, अंजन, स्वेदन, पिण्डी, कवल, गण्डूष, धूम,रक्तमोक्षनादि का ज्ञान |
क्रियाकल्प -
क्रियाकल्प चिकित्सा की वह विधि है जिसमें द्रव्य औषिधयों को पीसकर कल्क या चूर्ण बनाकर औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है और रोगों का नाश किया जाता है | यह मुख्यता उर्ध्वजत्रुगत रोगों में प्रयोग किया जाता है | क्रियाकल्प की निम्नलिखित विधियां है |
आश्च्योतन -
2 से 6 फुट ऊँचें टेबल पर रोगी को सीधा लेटाकर आँखों पर 2 अंगुल की ऊंचाई से उबले हुऐ ठंडे पानी की बूंदें डालना आश्च्योतन कहलाता है | दोषों के अनुसार रोगनाशक औषिधियों के कवाथ से भी आश्च्योतन किया जा सकता है | आश्च्योतन के लिए औषधि द्रव्य अच्छी तरह से छाना हुआ ( Filtered ) होना चाहिए | आश्च्योतन कर्म करने के लिए दायें हाथ की तर्जनी तथा अंगुठें से आँख की पलक को खोलकर नाक की और से आँख में औषध द्रव्य की 8 से 12 बूंदे Eye dropper या रुई की व्रति की सहायता से गिराई / टपकाई जाती है | आचार्य सुश्रुत ने इसके तीन भेद बताये है |
1) स्नेहन - इसका प्रयोग वातजन्य नेत्र रोगों में किया जाता है और औषधि की 10 बूंद आँख में गिराई जाती है |
2 ) लेखन - इसका प्रयोग कफजन्य नेत्र रोगों में किया जाता है |
3) रोपण - इसका प्रयोग पित्तज रक्त नेत्र रोगों में किया जाता है | और आँख में औषधि द्रव्य की 12 बूंदें डाली जाती है |
इन सभी प्रकार के आश्च्योतन कर्मो को करने के लिए ऋतु के अनुसार उष्ण और शीतल द्रव्य का कवाथ प्रयोग किया जाता है | अथवा गर्मी की ऋतु में शीत और सर्दी की ऋतू में उष्ण द्रव्यों का औषधि द्रव प्रयोग किया जाता है |आश्च्योतनकर्म रात के समय नहीं करना चाहिए |
पुटपाक -
पुटपाक विधि आंखों के रोगों के लिए प्रयोग की जाती है इस विधि में आँखों के चारों ओर उड़द की पीसी हुई दाल के कल्क से गोल तथा एक समान मोटी दीवार बनाई जाती है फिर इसमें तर्पण विधि से द्रव्यों का रस छोड़ा जाता है आँखों की रौशनी को बढ़ाने के लिए पुटपाक का प्रयोग किया जाता है | आचार्य सुश्रुत ने पुटपाक के तीन भेद बतायें है |
1) स्नेहन पुटपाक - इसका प्रयोग तब करना चाहिए जब नेत्र अधिक रुक्ष हो | इसके लिए मांसरस, मधुर औषध कषाय और दूध का प्रयोग करते है |
2) लेखन पुटपाक - जब नेत्र स्निग्ध हो तो लेखन पुटपाक में शहद, मस्तु त्रिफला कवाथ आदि का प्रयोग किया जाता है |
3) रोपण पुटपाक - वात, पित,रक्त और वर्ण के रोपण के लिए तिक्त द्रव्य के कवाथ को लेकर या द्रव्यों को गंभारी, कुमुद, एरंड, केला की पत्तियों में से किसी एक में अच्छी तरह लपेट कर मिटटी का लेप करके खदिर अडूसा में से किसी लकड़ी के अंगारें में तब तक पकावे जब तक वह लाल रंग का ना हो जाये | ठंडा होने के बाद इन द्रव्यों का रस निकालकर तर्पण विधि के अनुसार आंखों में भरते है |
पुटपाक कर्म करने से नेत्र निर्मल और साफ़ हो जाते है निद्रा अच्छी आती है और धूल मिटटी से आँखों पर कम प्रभाव पड़ता है | अतियोग होने पर नेत्र में पीड़ा, सूजन और तिमिर रोह भी हो सकते है |
तर्पण -
हवा धूल और धूप से रहित स्थान में प्रकाश युक्त कमरे में 3 फुट ऊँचा 2 फुट चौड़ा और 6 फुट लम्बे टेबल पर रोगी को लिटा देते है उड़द की दाल का कल्क बनाकर आँखों के चारों ओर दो अंगुल की ऊंचाई की दीवार बना दी जाती है | फिर इसमें घृतमण्ड या सुखोष्ण द्रवित रूप त्रिफलाघृत नेत्रकोश पर पलकों के बालों तक भर देना चाहिए और रोगी को बार बार आँखों को खोलने और बंद करने को कहना चाहिए | स्वच्छ नेत्रों में यह घृत 500 गिनती बोलने तक कफज नेत्र रोग में 600 गिनती तक पित्तज नेत्र रोग में 800 गिनती तक और वातज नेत्र रोगों में 1000 गिनती बोलने तक नेत्र तर्पण करना चाहिए | सम्यक तर्पण होने के बाद उड़द की बनी पाली या दीवार में छेद करके घी को बाहर निकाल देना देते है |
अंजन -
नेत्र रोगों के स्थानिक उपचार के रूप में अंजन का प्रयोग किया जाता है । आमावस्था नष्ठ होने पर रोगों के अपने रूप में प्रगट होने पर वामन विरेचन से शुद्ध रोगी के नेत्र में अंगुली या शलाका से औषध का अंजन किया जाता है या लगाया जाता है । अंजन ना अधिक और ना ही कम लगायें | अंजन के प्रयोग के बाद नेत्रों को तब तक न धोयें जब तक दोष अश्रु और मैल के रूप में बाहर निकल रहे हों | इसके तीन प्रकार होते है ।
1) लेखन अंजन - इसका प्रयोग सुबह के समय किया जाता है ।
2) रोपण अंजन - इसका प्रयोग शाम को करते है ।
3) प्रसादन अंजन - इसका प्रयोग रात के समय किया जाता है ।
आचार्य चरक के अनुसार सौवीरांजन का प्रयोग रोजाना करना चाहिए | यह नेत्रों के लिए हितकर होता है | नेत्र से दूषित स्राव को निकालने के लिए पांच से आठ दिन तक रसांजन का प्रयोग करना चाहिए |
स्वेदन -
शरीर से जिस प्रकार की क्रिया से स्वेद या पसीना निकला जाता है उस क्रिया को स्वेदन कहते है | स्वेदन के प्रयोग से शरीर की जकड़न, भारीपन और ठंडक दूर होती है तथा पसीना निकलता है | रोग अनुसार, ऋतु के अनुसार और रोगी के बल का विचार करके स्वेदन करना चाहिए | शरीर के अनुसार स्वेदन दो प्रकार का होता है |
स्निग्ध स्वेदन और रुक्ष स्वेदन
1) आमाशय ( stomach ) कफ का स्थान है जब आमाशय में कफ कुपित हो जाता है तो रुक्ष स्वेद कराया जाता है जब दोष शांत हो जाये तो आगंतुक वात को शांत करने के लिए स्निग्ध स्वेदन किया जाता है |
2) इसी प्रकार पक्वाशय वात का स्थान है वात दोष को शांत करने के लिए पहले स्निग्ध स्वेदन किया जाता है और बाद में आगन्तुक कफ दोष को शांत करने के लिए रुक्ष स्वेद कराया जाता है |
वृषण, हृदय, नेत्र इनका स्वेदन नहीं करना चाहिए | यदि अत्यावश्यक हो तो मृदु स्वेदन करे | शरीर के दूसरे अंगों पर रोग एवं आवश्यकता अनुसार स्वेदन करे |
पिण्डी -
सभी प्रकार के नेत्र रोगों जैसे नेत्रगत व्रणों में दोष अनुसार रोग शामक औषधि को सूक्ष्म पीसकर कल्क बनाकर साफ़ कपड़े पर रखकर आँखों पर बांधते है जिससे कल्क वाला भाग पलक के ऊपर रहता है इसी विधि को पिण्डी या कंवलिका कहा जाता है | वातज नेत्र रोगों में स्निग्ध पिण्डी , पित्तज रोग में शीतल पिण्डी , कफज में सुकोष्ण पिण्डी का प्रयोग करना चाहिए |
कवल -
जब औषध द्रव्यों के कवाथ, तैलादि स्नेहन, को मुख में इतना भर लिया जाये कि मुख में धारण किये हुऐ द्रव्य को इधर उधर घुमाया जा सकता है तो इसको कवल कहा जाता है | घूमाने के बाद इस द्रव पदार्थ को मुख से निकाला जाता है | इससे मुख में स्वच्छता और अन्नपान की पैदा होती है | रोजाना दातुन से दांत साफ़ करने के बाद कवल धारण करना चाहिए | ऐसा करने से कई प्रकार के मुख रोगों का नाश होता है |
गण्डूष -
गण्डूष में औषध द्रव्यों के कवाथ को पूरा भर लिया जाता है इसमें द्रव पदार्थ को मुख में इधर उधर नहीं चला सकते | गण्डूष को तब तक धारण करके रखा जाता है जब तक आँखों से आंसू ना निकल आये और मुख तथा कंठ के दोषों का शमन न हो जाये | इसके बाद ही द्रव्य को निकालना चाहिए | यह मुख के रोगों को शांत करता है | इससे मुख में निर्मलता, लघुता आती है |
धूम -
धूम का प्रयोग नासा रोग को नष्ट करने के लिए किया जाता है यह नस्य का एक प्रकार है जिसमे औषधसिद्ध धूम को नाक से खींचा जाता है | मुख से जो धुआं लिया जाता है उसको धूम्रपान कहते है, और नाक से जो धुआं लिया जाता है उसको धूमनस्य कहा जाता है | धूम में प्रधूम नस्य का विशेष स्थान है इसमें रोगी को औषध द्रव्य का चूर्ण नाक से सूंघने के लिए दिया जाता है | औषधि को नाक में फूंकने के लिए 6 अंगुल लंबी और दोनों तरफ से मुख वाली नली का प्रयोग किया जाता है इसके इलावा चूर्ण को कपड़े पोटली में बांध कर भी सुंघाया जाता है जिसे औषधि नाक के अंदर चली जाती है |आचार्य चक्रपाणि ने प्रायोगिक, वैरेचनिक और स्नैहिक तीन प्रकार के धूम बताये है |
रक्तमोक्षण -
दूषित रक्त को शरीर से निकालना रक्तमोक्षण कहलाता है | रक्त की वृद्धि के कारण पैदा हुऐ विकारों की चिकित्सा के लिए रक्तमोक्षण कर्म कराना चाहिए | स्वेदन कर्मों से सम्पूर्ण शरीर का शुद्विकरण नहीं हो पाता | परन्तु रक्तमोक्षण करने से सभी धातुऐं शुद्ध हो जाती है | दूषित हुऐ रक्त को कई प्रकार से शरीर से बाहर निकालते है रक्त मोक्षण करने के लिए विभिन्न प्रकार के यंत्र प्रयोग में लाये जाते है | रक्तमोक्षण अष्टविध शस्त्रकर्म का सातवां कर्म माना गया है | शरीर से उचित मात्रा में रक्त का विस्रवण करवा देने से रक्तगत दोष शांत हो जाते है | रक्तमोक्षण दो प्रकार का होता है -
1) अशस्त्र विस्रवण - जिसमें शस्त्र का प्रयोग नहीं होता उस विधि के द्वारा किये गये रक्त विस्रवण को अशस्त्र विस्रवण कहा जाता है | जैसे जलौका, शृंग, अलाबू आदि के प्रयोग से रक्तमोक्षण करके दूषित रक्त बाहर निकाला जाता है
2) शस्त्र विस्रवण - जिसमें शस्त्र का पूर्णता प्रयोग किया जाता है उसको शस्त्र विस्रवण कहते है | जैसे शिरावेध में सूची कुशपत्र और त्रिकूर्चक नामक शस्त्र का प्रयोग |
यदि दूषित रक्त गंभीर धातुओं में स्थित हो तो जलौका का प्रयोग करना चाहिए | सारे शरीर में व्याप्त दोषो को निकालने के लिए शिरावेध विशेषकर हितकारी है | यदि दोष केवल त्वचा तक ही सीमित हो तो श्रृंग और अलाबू का प्रयोग कराना चाहिए |
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