TOPIC - 3
विष का प्रभाव,निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त (आधुनिक एवं प्राचीन मतानुसार )
विष का प्रभाव
विष का प्रभाव - आयुर्वेद में विष के दस गुण बताये है जिनका मनुष्य के शरीर पर विशेष प्रभाव पड़ता है जो निम्नलिखित है।
1) लघु - जो शरीर में जाकर लघुता पैदा करे जल्दी से पच जाये और शरीर की क्रियाओं में तीव्रता लाते है उसे लघु कहते है।
2) रुक्ष - जो शरीर में जाकर द्रव का शोषण, रुक्षता, जड़ता, बल को कम करता है और स्तम्भन पैदा करता है उसे रुक्ष कहते है ।
3) आशु - जो शरीर में जाकर जल्दी से फैल जाये उसे आशुकारी या आशु कहते है।
4) विशद - जो शरीर में जाकर दोष,धातु, मल, को स्वच्छता और विमलता प्रधान करे उसे विशद कहते है।
5) व्यवायी - जो बिना पके ही सारे शरीर में फैल जावे फिर उसका पाचन हो उसे व्यवायी कहते है।
6) तीक्ष्ण - जो शरीर में जाकर शीघ्रता से काम करे और शरीर में दाह, पाक, और लेखन का काम करे उसे तीक्ष्ण कहते है।
7) विकासी - जो समस्त शरीर में व्याप्त होकर ओज धातु को सुखाकर शरीर के रस से लेकर वीर्य धातुओं को अलग करके सन्धिबन्धनों को ढीला करता है उसे विकासी कहते है।
8) सूक्ष्म - जो शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश करके अपनी क्रिया तेजी से करता है उसे सूक्ष्म कहते है।
9) उष्ण - जो शरीर में जाकर उष्णता पैदा करे और सारक, पाचक, तृषा, दाह और स्वेदजनक हो उसे उष्ण कहते है।
10) अनिर्देश्य रस - जिसके रस को प्रायः बताया नही जा सकता उसे अनिर्देश्य रस कहा जाता है।
विष का निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त - विष का निदान न केवल चिकित्सा की दृष्टि से यदपि वैधानिक दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। जितनी जल्दी हो सके यह पता लगाना चाहिए कि रोगी को कौन सा विष कितनी मात्रा में दिया गया है। और किसके द्वारा दिया गया है। जितना जल्दी इन बातों का ज्ञान होगा उतनी जल्दी चिकित्सा आरम्भ की जा सकती है। रोगी के प्राण बचाना चिकित्सक का सबसे पहला कर्तव्य है। प्रधान रूप से विष खाने पर वमन, अतिसार, आक्षेप, मूर्च्छा, तीव्र उदरशूल, अफारा, पसीना आना, शरीर का नीला पड़ना, श्वास की गति में परिवर्तन, घबराहट, मूत्र में रक्त आना यह सब लक्षण पाये जाते है। इसलिए चिकित्सक को भेदक चिकित्सा का पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसे रोगी द्वारा खाये गये अन्न, पेय, औषधि, वमन, विरेचन, मूत्र, पुरीष की भी जांच करानी चाहिए। इससे विष की चिकित्सा करने में सहायता मिलती है।
प्राचीन मतानुसार विष की चिकित्सा - विष की चिकित्सा के लिए प्राचीन मतानुसार 24 प्रकार की विधियां बताई गयी है।
1) मन्त्र - प्राचीन समय में मन्त्रों से विष की चिकित्सा की जाती है।
2) अरिष्टाबन्धन - अरिष्टाबन्धन का अर्थ है पट्टी बांधना । जब सर्प किसी व्यक्ति को काटता है । तो उसका विष रक्त का सहारा लेकर सम्पूर्ण शरीर में फैलता है । उस विष को आगे न फैलने से रोकने के लिए दंश स्थान के ऊपर चार अंगुल की दूरी पर अरिष्टाबन्धन करना चाहिए।
3) उत्कर्तन ( incision ) - दंश स्थान पर चीरा लगाना उत्कर्तन कहलाता है। इससे विष दंश स्थान से आगे नही बढ़ता ।
4) निष्पीड़न ( compression ) - रक्त को निचोड़कर या दबाकर दंश स्थान से बाहर निकालना निष्पीड़न कहलाता है। जिससे विश्वीश शरीर के बाकी अंगों तक नही पहुँच पाता।
5) चूषण ( suction ) - चूषण का अर्थ है चूसना । विष को दंश स्थान से चूसकर बाहर निकालना चूषण कहलाता है।
6) दहन - इसका अर्थ है जलाना । दंश स्थान पर छेदन और रक्तचूषण के बाद दहन कर्म करते है। दंश स्थान को लोहे की शलाका से जलाकर विष से संक्रमित स्थान को शुद्ध किया जाता है ।
7) परिषेचन - रोगी होश में रहे इसके लिए उसके मुख पर बार बार ठंडे पानी से छींटे मारना परिषेचन कहलाता है।
8) अवगाहन - रोगी को शीतल जल से स्नान करना चाहिए या शीतल जल से भिगोये कपड़े से सम्पूर्ण शरीर को पोंछना अवगाहन है।
9) रक्तमोक्षण - जब विष रोगी के शरीर में जाता है तो सबसे पहले रक्त को दूषित करता है। इसलिए दूषित रक्त को निकालने के लिए दंश के ऊपर श्रृंग, जलोका, अलाबू का प्रयोग करके रक्तमोक्षण किया जाता है।
10) वमन और विरेचन - खाया हुआ विष वमन और विरेचन द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है। इसके लिए रोगी का उदार प्रक्षालन किया जाता है। और एनीमा करके उसका पेट साफ किया जाता है।
11) उपधान और प्रधमन - जब विष के द्वारा रोगी मरने के नजदीक पहुँच गया हो तो उसके सिर पर काकपद के आकार का चीरा लगाकर रक्तमोक्षण किया जाता है। इसी को उपधान कहते है। और इस व्रण के अंदर किसी नली में औषधि चूर्ण रखकर फंक मारकर छिड़कना प्रधमन कहलाता है।
12) हृदयावरण - हृदयावरण का अर्थ है हृदय की रक्षा करना । शरीर में हृदय और मस्तिष्क बहुत महत्वपूर्ण अंग है । इसलिए विष के प्रभाव से इसकी रक्षा करना ज़रूरी होता है। इसके लिए रोगी को मधु और घी का पान करवाना चाहिए। कई बार बकरे का रक्त भी पिलाया जाता है।
13) अंजन और नस्य - विष के प्रभाव से जब रोगी की नजर ख़राब होती है तो उसकी चिकित्सा अंजन और नस्य से करनी चाहिए। जब विष के प्रभाव से रोगी की पलकों में सूजन आ गयी हो, आंखे मलिन हो गई हो आँख कान नाक और कंठ में कफ का अवरोध शुरू हो गया हो तो अंजन और नस्य का प्रयोग करना चाहिए।
14) लेह - लेह या अवलेह से अर्थ वह द्रव्य जिसे चाटकर खाया जाता है । विष से पीड़ित रोगी का मुख और कंठ सूखता है इसलिए लेहों को प्रयोग में लाना चाहिए। जैसे मधु और घी । इसे आसानी से रोगी निगल सकता है।
15) धूम प्रयोग - धूम का प्रयोग तब किया जाता है जब रोगी बेहोशी की अवस्था में हो इसके लिए कई प्रकार की औषिधियों का धुआं देते है । जिससे रोगी के बन्द स्रोतखुल जाते है और श्वास की गति भी ठीक हो जाती है। यह विष का नाश करने वाला धुआं रोगी के अंदर जाकर विष को खत्म करता है। इसके लिए छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, अरहर के पत्तों का धूम प्रयोग किया जाता है।
16) प्रतिविष - जब रोगी अंतिम और असाध्य अवस्था में पहुँच जाये तो अंतिम उपाय के रूप में जंगम विष से ग्रस्त रोगी को स्थावर विष का पान कराया जाता है और स्थावर विष से ग्रस्त रोगी को जंगम विष प्रतिविष के रूप में दिया जाता है।
17) संज्ञास्थापन - जब कोई मनुष्य विष खा लेता है तो उसको होश में लाये रखना ज़रूरी है। जिस रोगी की आँखें खुली की खुली रह गई हो, गर्दन लटक गई हो उसे तीव्र औषधि द्रव्य सुंघाकर होश में लाना चाहिए । हाथ से माथे पर अंगुलियों से ताड़न करना चाहिए। कुशल वैधो से उसके सिर से रक्त निकालकर सिर पर अच्छे अगदों का लेप करना चाहिए।
18) मृतसंजीवन - मृतसंजीवन अंगद का प्रयोग आचार्य चरक ने बताया है उनके अनुसार असवर्ग, केवटी मोथा, गणिवन, फिटकरी, छरीला, गोरेचन, तगर, खस की पत्तियां, केशर, जटामांसी, तुलसी की मंजरी, इलायची, हरताल, खेर, शिरीष के फूल, गन्ध विरोजा, पदम् चारटी, विशाला, देवदारु, कमल का केसर, सावर लोध, मैनशिल, रेणुका, चमेली के फूल का रस, मदार के फूल का रस, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, पीपर, लाख, सुगन्धवाला, मुदगपर्णी, चंदन, मुलेठी, मैनफल, निर्गुन्डी की पत्ती, अमलतास, लोध्र, अपामार्ग, प्रियंगु के फूल, रास्ना, वायवडिंग इन सब द्रव्यों को पुष्प नक्षत्र में एकत्रित करके समभाग में लेकर पीसकर गोली बना लेते है। इस गोली के प्रयोग से सब प्रकार के विष नष्ट होते है।
आधुनिक मतानुसार विष चिकित्सा - आधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार विष की निम्नलिखित चिकित्सा चाहिए।
1) पुनर्जीवन - RESUSCITATION
2) अवशोषित विष का निष्कासन - REMOVAL OF UNABSORBED POISON
3) प्रतिविष का प्रयोग - USE OF ANTI DOTES
4) अवशोषित विष का बहिष्करण - ELIMINATION OF ABSORBED POISON
5) लक्षणों व् उपद्रवों का उपचार - TREATMENT OF SYMPTOMS AND COMPLICATIONS
6) रोगी के स्वास्थ्य का अनुकरण - MANTENANCE OF GENERAL HEATH OF PATIENT
यदि रोगी बेहोश हो गया हो तो उसको होश में लाने के लिए शीतल जल से मुख पर छींटे मारने चाहिए अगर साँस रुक रहा हो तो कृत्रिम शवास देना चाहिए । अगर रोगी का रक्तचाप कम हो गया हो तो डेक्सट्रोज़ या प्रोटीन घोल देना चाहिए। अगर bp बढ़ गया हो तो डोपामाइन इंजेक्ट करना चाहिए। उसके बाद अवशोषित विष को शरीर से निकलने के लिए वमन विरेचन कराना चाहिए । इसके लिए पोटैशियम परमैगनेट, मैगनीशियम सल्फ़ेट, सोडियम सल्फ़ेट, तरल पैराफिन आदि द्रव्यों का प्रयोग कराते है। जो विष वमन विरेचन के बाद भी शरीर से नही निकलते उसके लिए प्रतिकारक औषधियों का प्रयोग करते है। यदि विष का सेवन किये हुए 6 घण्टे से ऊपर हो गया हो और सभी विधियों का प्रयोग करने पर भी लाभ नही मिल रहा हो तो शरीर में विष अवशोषित हो गया है ऐसा समझ लेना चाहिए। इस समय मूत्रल द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए जिससे विष शरीर से बाहर निकल जाय।
यदि चिकित्सक को विष का ज्ञान न हो तो विष खाये हुए रोगी के लक्षण देखकर उसकी चिकित्सा विवेकपूर्ण करनी चाहिए।
विष की चिकित्सा में जीवनीय शक्ति का ह्रास होता है इसलिए मधुर, बल्य और संतुलित भोजन करवाना चाहिए और चिकित्सक द्वारा रोगी के स्वास्थ्य का अनुकरण करते रहना रहना चाहिए।
विष का प्रभाव,निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त (आधुनिक एवं प्राचीन मतानुसार )
विष का प्रभाव
विष का प्रभाव - आयुर्वेद में विष के दस गुण बताये है जिनका मनुष्य के शरीर पर विशेष प्रभाव पड़ता है जो निम्नलिखित है।
1) लघु - जो शरीर में जाकर लघुता पैदा करे जल्दी से पच जाये और शरीर की क्रियाओं में तीव्रता लाते है उसे लघु कहते है।
2) रुक्ष - जो शरीर में जाकर द्रव का शोषण, रुक्षता, जड़ता, बल को कम करता है और स्तम्भन पैदा करता है उसे रुक्ष कहते है ।
3) आशु - जो शरीर में जाकर जल्दी से फैल जाये उसे आशुकारी या आशु कहते है।
4) विशद - जो शरीर में जाकर दोष,धातु, मल, को स्वच्छता और विमलता प्रधान करे उसे विशद कहते है।
5) व्यवायी - जो बिना पके ही सारे शरीर में फैल जावे फिर उसका पाचन हो उसे व्यवायी कहते है।
6) तीक्ष्ण - जो शरीर में जाकर शीघ्रता से काम करे और शरीर में दाह, पाक, और लेखन का काम करे उसे तीक्ष्ण कहते है।
7) विकासी - जो समस्त शरीर में व्याप्त होकर ओज धातु को सुखाकर शरीर के रस से लेकर वीर्य धातुओं को अलग करके सन्धिबन्धनों को ढीला करता है उसे विकासी कहते है।
8) सूक्ष्म - जो शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश करके अपनी क्रिया तेजी से करता है उसे सूक्ष्म कहते है।
9) उष्ण - जो शरीर में जाकर उष्णता पैदा करे और सारक, पाचक, तृषा, दाह और स्वेदजनक हो उसे उष्ण कहते है।
10) अनिर्देश्य रस - जिसके रस को प्रायः बताया नही जा सकता उसे अनिर्देश्य रस कहा जाता है।
विष का निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त - विष का निदान न केवल चिकित्सा की दृष्टि से यदपि वैधानिक दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। जितनी जल्दी हो सके यह पता लगाना चाहिए कि रोगी को कौन सा विष कितनी मात्रा में दिया गया है। और किसके द्वारा दिया गया है। जितना जल्दी इन बातों का ज्ञान होगा उतनी जल्दी चिकित्सा आरम्भ की जा सकती है। रोगी के प्राण बचाना चिकित्सक का सबसे पहला कर्तव्य है। प्रधान रूप से विष खाने पर वमन, अतिसार, आक्षेप, मूर्च्छा, तीव्र उदरशूल, अफारा, पसीना आना, शरीर का नीला पड़ना, श्वास की गति में परिवर्तन, घबराहट, मूत्र में रक्त आना यह सब लक्षण पाये जाते है। इसलिए चिकित्सक को भेदक चिकित्सा का पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसे रोगी द्वारा खाये गये अन्न, पेय, औषधि, वमन, विरेचन, मूत्र, पुरीष की भी जांच करानी चाहिए। इससे विष की चिकित्सा करने में सहायता मिलती है।
प्राचीन मतानुसार विष की चिकित्सा - विष की चिकित्सा के लिए प्राचीन मतानुसार 24 प्रकार की विधियां बताई गयी है।
1) मन्त्र - प्राचीन समय में मन्त्रों से विष की चिकित्सा की जाती है।
2) अरिष्टाबन्धन - अरिष्टाबन्धन का अर्थ है पट्टी बांधना । जब सर्प किसी व्यक्ति को काटता है । तो उसका विष रक्त का सहारा लेकर सम्पूर्ण शरीर में फैलता है । उस विष को आगे न फैलने से रोकने के लिए दंश स्थान के ऊपर चार अंगुल की दूरी पर अरिष्टाबन्धन करना चाहिए।
3) उत्कर्तन ( incision ) - दंश स्थान पर चीरा लगाना उत्कर्तन कहलाता है। इससे विष दंश स्थान से आगे नही बढ़ता ।
4) निष्पीड़न ( compression ) - रक्त को निचोड़कर या दबाकर दंश स्थान से बाहर निकालना निष्पीड़न कहलाता है। जिससे विश्वीश शरीर के बाकी अंगों तक नही पहुँच पाता।
5) चूषण ( suction ) - चूषण का अर्थ है चूसना । विष को दंश स्थान से चूसकर बाहर निकालना चूषण कहलाता है।
6) दहन - इसका अर्थ है जलाना । दंश स्थान पर छेदन और रक्तचूषण के बाद दहन कर्म करते है। दंश स्थान को लोहे की शलाका से जलाकर विष से संक्रमित स्थान को शुद्ध किया जाता है ।
7) परिषेचन - रोगी होश में रहे इसके लिए उसके मुख पर बार बार ठंडे पानी से छींटे मारना परिषेचन कहलाता है।
8) अवगाहन - रोगी को शीतल जल से स्नान करना चाहिए या शीतल जल से भिगोये कपड़े से सम्पूर्ण शरीर को पोंछना अवगाहन है।
9) रक्तमोक्षण - जब विष रोगी के शरीर में जाता है तो सबसे पहले रक्त को दूषित करता है। इसलिए दूषित रक्त को निकालने के लिए दंश के ऊपर श्रृंग, जलोका, अलाबू का प्रयोग करके रक्तमोक्षण किया जाता है।
10) वमन और विरेचन - खाया हुआ विष वमन और विरेचन द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है। इसके लिए रोगी का उदार प्रक्षालन किया जाता है। और एनीमा करके उसका पेट साफ किया जाता है।
11) उपधान और प्रधमन - जब विष के द्वारा रोगी मरने के नजदीक पहुँच गया हो तो उसके सिर पर काकपद के आकार का चीरा लगाकर रक्तमोक्षण किया जाता है। इसी को उपधान कहते है। और इस व्रण के अंदर किसी नली में औषधि चूर्ण रखकर फंक मारकर छिड़कना प्रधमन कहलाता है।
12) हृदयावरण - हृदयावरण का अर्थ है हृदय की रक्षा करना । शरीर में हृदय और मस्तिष्क बहुत महत्वपूर्ण अंग है । इसलिए विष के प्रभाव से इसकी रक्षा करना ज़रूरी होता है। इसके लिए रोगी को मधु और घी का पान करवाना चाहिए। कई बार बकरे का रक्त भी पिलाया जाता है।
13) अंजन और नस्य - विष के प्रभाव से जब रोगी की नजर ख़राब होती है तो उसकी चिकित्सा अंजन और नस्य से करनी चाहिए। जब विष के प्रभाव से रोगी की पलकों में सूजन आ गयी हो, आंखे मलिन हो गई हो आँख कान नाक और कंठ में कफ का अवरोध शुरू हो गया हो तो अंजन और नस्य का प्रयोग करना चाहिए।
14) लेह - लेह या अवलेह से अर्थ वह द्रव्य जिसे चाटकर खाया जाता है । विष से पीड़ित रोगी का मुख और कंठ सूखता है इसलिए लेहों को प्रयोग में लाना चाहिए। जैसे मधु और घी । इसे आसानी से रोगी निगल सकता है।
15) धूम प्रयोग - धूम का प्रयोग तब किया जाता है जब रोगी बेहोशी की अवस्था में हो इसके लिए कई प्रकार की औषिधियों का धुआं देते है । जिससे रोगी के बन्द स्रोतखुल जाते है और श्वास की गति भी ठीक हो जाती है। यह विष का नाश करने वाला धुआं रोगी के अंदर जाकर विष को खत्म करता है। इसके लिए छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, अरहर के पत्तों का धूम प्रयोग किया जाता है।
16) प्रतिविष - जब रोगी अंतिम और असाध्य अवस्था में पहुँच जाये तो अंतिम उपाय के रूप में जंगम विष से ग्रस्त रोगी को स्थावर विष का पान कराया जाता है और स्थावर विष से ग्रस्त रोगी को जंगम विष प्रतिविष के रूप में दिया जाता है।
17) संज्ञास्थापन - जब कोई मनुष्य विष खा लेता है तो उसको होश में लाये रखना ज़रूरी है। जिस रोगी की आँखें खुली की खुली रह गई हो, गर्दन लटक गई हो उसे तीव्र औषधि द्रव्य सुंघाकर होश में लाना चाहिए । हाथ से माथे पर अंगुलियों से ताड़न करना चाहिए। कुशल वैधो से उसके सिर से रक्त निकालकर सिर पर अच्छे अगदों का लेप करना चाहिए।
18) मृतसंजीवन - मृतसंजीवन अंगद का प्रयोग आचार्य चरक ने बताया है उनके अनुसार असवर्ग, केवटी मोथा, गणिवन, फिटकरी, छरीला, गोरेचन, तगर, खस की पत्तियां, केशर, जटामांसी, तुलसी की मंजरी, इलायची, हरताल, खेर, शिरीष के फूल, गन्ध विरोजा, पदम् चारटी, विशाला, देवदारु, कमल का केसर, सावर लोध, मैनशिल, रेणुका, चमेली के फूल का रस, मदार के फूल का रस, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, पीपर, लाख, सुगन्धवाला, मुदगपर्णी, चंदन, मुलेठी, मैनफल, निर्गुन्डी की पत्ती, अमलतास, लोध्र, अपामार्ग, प्रियंगु के फूल, रास्ना, वायवडिंग इन सब द्रव्यों को पुष्प नक्षत्र में एकत्रित करके समभाग में लेकर पीसकर गोली बना लेते है। इस गोली के प्रयोग से सब प्रकार के विष नष्ट होते है।
आधुनिक मतानुसार विष चिकित्सा - आधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार विष की निम्नलिखित चिकित्सा चाहिए।
1) पुनर्जीवन - RESUSCITATION
2) अवशोषित विष का निष्कासन - REMOVAL OF UNABSORBED POISON
3) प्रतिविष का प्रयोग - USE OF ANTI DOTES
4) अवशोषित विष का बहिष्करण - ELIMINATION OF ABSORBED POISON
5) लक्षणों व् उपद्रवों का उपचार - TREATMENT OF SYMPTOMS AND COMPLICATIONS
6) रोगी के स्वास्थ्य का अनुकरण - MANTENANCE OF GENERAL HEATH OF PATIENT
यदि रोगी बेहोश हो गया हो तो उसको होश में लाने के लिए शीतल जल से मुख पर छींटे मारने चाहिए अगर साँस रुक रहा हो तो कृत्रिम शवास देना चाहिए । अगर रोगी का रक्तचाप कम हो गया हो तो डेक्सट्रोज़ या प्रोटीन घोल देना चाहिए। अगर bp बढ़ गया हो तो डोपामाइन इंजेक्ट करना चाहिए। उसके बाद अवशोषित विष को शरीर से निकलने के लिए वमन विरेचन कराना चाहिए । इसके लिए पोटैशियम परमैगनेट, मैगनीशियम सल्फ़ेट, सोडियम सल्फ़ेट, तरल पैराफिन आदि द्रव्यों का प्रयोग कराते है। जो विष वमन विरेचन के बाद भी शरीर से नही निकलते उसके लिए प्रतिकारक औषधियों का प्रयोग करते है। यदि विष का सेवन किये हुए 6 घण्टे से ऊपर हो गया हो और सभी विधियों का प्रयोग करने पर भी लाभ नही मिल रहा हो तो शरीर में विष अवशोषित हो गया है ऐसा समझ लेना चाहिए। इस समय मूत्रल द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए जिससे विष शरीर से बाहर निकल जाय।
यदि चिकित्सक को विष का ज्ञान न हो तो विष खाये हुए रोगी के लक्षण देखकर उसकी चिकित्सा विवेकपूर्ण करनी चाहिए।
विष की चिकित्सा में जीवनीय शक्ति का ह्रास होता है इसलिए मधुर, बल्य और संतुलित भोजन करवाना चाहिए और चिकित्सक द्वारा रोगी के स्वास्थ्य का अनुकरण करते रहना रहना चाहिए।
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