Saturday 28 January 2017

विष का प्रभाव,निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त

 TOPIC - 3 

विष का प्रभाव,निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त (आधुनिक एवं प्राचीन मतानुसार )
                  
                          विष का प्रभाव   

विष का प्रभाव - आयुर्वेद में विष के दस गुण बताये है जिनका मनुष्य के शरीर पर विशेष प्रभाव पड़ता है जो निम्नलिखित है। 
1) लघु - जो शरीर में जाकर लघुता पैदा करे जल्दी से पच जाये और शरीर की क्रियाओं में तीव्रता लाते है उसे लघु कहते है। 
2) रुक्ष -  जो शरीर में जाकर द्रव का शोषण, रुक्षता, जड़ता, बल को कम करता है और स्तम्भन पैदा करता है उसे रुक्ष कहते है । 
3) आशु - जो शरीर में जाकर जल्दी से फैल जाये उसे आशुकारी या आशु कहते है। 
4) विशद - जो शरीर में जाकर दोष,धातु, मल, को स्वच्छता और विमलता प्रधान करे उसे विशद कहते है।    
5) व्यवायी - जो बिना पके ही सारे शरीर में फैल जावे फिर उसका पाचन हो उसे व्यवायी कहते है। 
6) तीक्ष्ण - जो शरीर में जाकर शीघ्रता से काम करे और शरीर में दाह, पाक, और लेखन का काम करे उसे तीक्ष्ण कहते है। 
7) विकासी - जो समस्त शरीर में व्याप्त होकर ओज धातु को सुखाकर शरीर के रस से लेकर वीर्य धातुओं को अलग करके सन्धिबन्धनों को ढीला करता है उसे विकासी कहते है। 
8) सूक्ष्म - जो शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश करके अपनी क्रिया तेजी से करता है उसे सूक्ष्म कहते है। 
9) उष्ण - जो शरीर में जाकर उष्णता पैदा करे और सारक, पाचक, तृषा, दाह और स्वेदजनक हो उसे उष्ण कहते है।
10) अनिर्देश्य रस - जिसके रस को प्रायः बताया नही जा सकता उसे अनिर्देश्य रस कहा जाता है। 

विष का निदान एवं विष चिकित्सा के सिद्धान्त - विष का निदान न केवल चिकित्सा की दृष्टि से यदपि वैधानिक दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। जितनी जल्दी हो सके यह पता लगाना चाहिए कि रोगी को कौन सा विष कितनी मात्रा में दिया गया है। और किसके द्वारा दिया गया है। जितना जल्दी इन बातों का ज्ञान होगा उतनी जल्दी चिकित्सा आरम्भ की जा सकती है। रोगी के प्राण बचाना चिकित्सक का सबसे पहला कर्तव्य है। प्रधान रूप से विष खाने पर वमन, अतिसार, आक्षेप, मूर्च्छा, तीव्र उदरशूल, अफारा, पसीना आना, शरीर का नीला पड़ना, श्वास की गति में परिवर्तन, घबराहट, मूत्र में रक्त आना यह सब लक्षण पाये जाते है। इसलिए चिकित्सक को भेदक चिकित्सा का पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसे रोगी द्वारा खाये गये अन्न, पेय, औषधि, वमन, विरेचन, मूत्र, पुरीष की भी जांच करानी चाहिए। इससे विष की चिकित्सा करने में सहायता मिलती है। 

प्राचीन मतानुसार विष की चिकित्सा - विष की चिकित्सा के लिए प्राचीन मतानुसार 24 प्रकार की विधियां बताई गयी है। 
1) मन्त्र - प्राचीन समय में मन्त्रों से विष की चिकित्सा की जाती है। 
2) अरिष्टाबन्धन - अरिष्टाबन्धन का अर्थ है पट्टी बांधना । जब सर्प किसी व्यक्ति को काटता है । तो उसका विष रक्त का सहारा लेकर सम्पूर्ण शरीर में फैलता है । उस विष को आगे न फैलने से रोकने के लिए दंश स्थान के ऊपर चार अंगुल की दूरी पर अरिष्टाबन्धन करना चाहिए। 
3) उत्कर्तन ( incision ) - दंश स्थान पर चीरा लगाना उत्कर्तन कहलाता है। इससे विष दंश स्थान से आगे नही बढ़ता । 
4) निष्पीड़न ( compression ) - रक्त को निचोड़कर या दबाकर  दंश स्थान से बाहर निकालना निष्पीड़न कहलाता है। जिससे विश्वीश शरीर के बाकी अंगों तक नही पहुँच पाता। 
5) चूषण ( suction ) - चूषण का अर्थ है चूसना । विष को दंश स्थान से चूसकर बाहर निकालना चूषण कहलाता है। 
6) दहन - इसका अर्थ है जलाना । दंश स्थान पर छेदन और रक्तचूषण के बाद दहन कर्म करते है। दंश स्थान को लोहे की शलाका से जलाकर विष से संक्रमित स्थान को शुद्ध किया जाता है । 
7) परिषेचन - रोगी होश में रहे इसके लिए उसके मुख पर बार बार ठंडे पानी से छींटे मारना परिषेचन कहलाता है। 
8) अवगाहन - रोगी को शीतल जल से स्नान करना चाहिए या शीतल जल से भिगोये कपड़े से सम्पूर्ण शरीर को पोंछना अवगाहन है। 
9) रक्तमोक्षण - जब विष रोगी के शरीर में जाता है तो सबसे पहले रक्त को दूषित करता है। इसलिए दूषित रक्त को निकालने के लिए दंश  के ऊपर श्रृंग, जलोका, अलाबू का प्रयोग करके रक्तमोक्षण किया जाता है। 
10) वमन और विरेचन - खाया हुआ विष वमन और विरेचन द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है। इसके लिए रोगी का उदार प्रक्षालन किया जाता है। और एनीमा करके उसका पेट साफ किया जाता है। 
11) उपधान और प्रधमन - जब विष के द्वारा रोगी मरने के नजदीक पहुँच गया हो तो उसके सिर पर काकपद के आकार का चीरा लगाकर रक्तमोक्षण किया जाता है। इसी को उपधान कहते है। और इस व्रण के अंदर किसी नली में औषधि चूर्ण रखकर फंक मारकर छिड़कना प्रधमन कहलाता है। 
12) हृदयावरण - हृदयावरण का अर्थ है हृदय की रक्षा करना । शरीर में हृदय और मस्तिष्क बहुत महत्वपूर्ण अंग है । इसलिए विष के प्रभाव से इसकी रक्षा करना ज़रूरी होता है। इसके लिए रोगी को मधु और घी का पान करवाना चाहिए। कई बार बकरे का रक्त भी पिलाया जाता है। 
13) अंजन और नस्य - विष के प्रभाव से जब रोगी की नजर ख़राब होती है तो उसकी चिकित्सा अंजन और नस्य से करनी चाहिए। जब विष के प्रभाव से रोगी की पलकों में सूजन आ गयी हो, आंखे मलिन हो गई हो आँख कान नाक और कंठ में कफ का अवरोध शुरू हो गया हो तो अंजन और नस्य का प्रयोग करना चाहिए। 
14) लेह - लेह या अवलेह से अर्थ वह द्रव्य जिसे चाटकर खाया जाता है । विष से पीड़ित रोगी का मुख और कंठ सूखता है इसलिए लेहों को प्रयोग में लाना चाहिए। जैसे मधु और घी । इसे आसानी से रोगी निगल सकता है। 
15) धूम प्रयोग - धूम का प्रयोग तब किया जाता है जब रोगी बेहोशी की अवस्था में हो इसके लिए कई प्रकार की औषिधियों का धुआं देते है । जिससे रोगी के बन्द स्रोतखुल जाते है और श्वास की गति भी ठीक हो जाती है। यह विष का नाश करने वाला धुआं रोगी के अंदर जाकर विष को खत्म करता है। इसके लिए छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, अरहर के पत्तों का धूम प्रयोग किया जाता है। 
16) प्रतिविष - जब रोगी अंतिम और असाध्य अवस्था में पहुँच जाये तो अंतिम उपाय के रूप में जंगम विष से ग्रस्त रोगी को स्थावर विष का पान कराया जाता है और स्थावर विष से ग्रस्त रोगी को जंगम विष प्रतिविष के रूप में दिया जाता है। 
17) संज्ञास्थापन - जब कोई मनुष्य विष खा लेता है तो उसको होश में लाये रखना ज़रूरी है। जिस रोगी की आँखें खुली की खुली रह गई हो, गर्दन लटक गई हो उसे तीव्र औषधि द्रव्य सुंघाकर होश में लाना चाहिए । हाथ से माथे पर अंगुलियों से ताड़न करना चाहिए। कुशल वैधो से उसके सिर से रक्त निकालकर सिर पर अच्छे अगदों का लेप करना चाहिए।  
18) मृतसंजीवन - मृतसंजीवन अंगद का प्रयोग आचार्य चरक ने बताया है उनके अनुसार असवर्ग, केवटी मोथा, गणिवन, फिटकरी, छरीला, गोरेचन, तगर, खस की पत्तियां, केशर, जटामांसी, तुलसी की मंजरी, इलायची, हरताल, खेर, शिरीष के फूल, गन्ध विरोजा, पदम् चारटी, विशाला, देवदारु, कमल का केसर, सावर लोध, मैनशिल, रेणुका, चमेली के फूल का रस, मदार के फूल का रस, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, पीपर, लाख, सुगन्धवाला, मुदगपर्णी, चंदन, मुलेठी, मैनफल, निर्गुन्डी की पत्ती, अमलतास, लोध्र, अपामार्ग, प्रियंगु के फूल, रास्ना, वायवडिंग इन सब द्रव्यों को पुष्प नक्षत्र में एकत्रित करके समभाग में लेकर पीसकर गोली बना लेते है। इस गोली के प्रयोग से सब प्रकार के विष नष्ट होते है। 

आधुनिक मतानुसार विष चिकित्सा - आधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार विष की निम्नलिखित चिकित्सा  चाहिए। 
1) पुनर्जीवन - RESUSCITATION
2) अवशोषित विष का निष्कासन - REMOVAL OF UNABSORBED POISON   
3) प्रतिविष का प्रयोग - USE OF ANTI DOTES
4) अवशोषित विष का बहिष्करण - ELIMINATION OF ABSORBED POISON 
5) लक्षणों व् उपद्रवों का उपचार - TREATMENT OF SYMPTOMS AND COMPLICATIONS
6) रोगी के स्वास्थ्य का अनुकरण - MANTENANCE OF GENERAL HEATH OF PATIENT 

यदि रोगी बेहोश हो गया हो तो उसको होश में लाने के लिए शीतल जल से मुख पर छींटे मारने चाहिए अगर साँस रुक रहा हो तो कृत्रिम शवास देना चाहिए । अगर रोगी का रक्तचाप कम हो गया हो तो डेक्सट्रोज़ या प्रोटीन घोल देना चाहिए। अगर bp  बढ़ गया हो तो डोपामाइन इंजेक्ट करना चाहिए। उसके बाद अवशोषित विष को शरीर से निकलने के लिए  वमन विरेचन कराना चाहिए । इसके लिए पोटैशियम परमैगनेट, मैगनीशियम सल्फ़ेट, सोडियम सल्फ़ेट, तरल पैराफिन आदि द्रव्यों का प्रयोग कराते है। जो विष वमन विरेचन के बाद भी शरीर से नही निकलते उसके लिए प्रतिकारक औषधियों का प्रयोग करते है। यदि विष का सेवन किये हुए 6 घण्टे से ऊपर हो गया हो और सभी विधियों का प्रयोग करने पर भी लाभ नही मिल रहा हो तो शरीर में विष अवशोषित हो गया है ऐसा समझ लेना चाहिए। इस समय मूत्रल द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए जिससे विष शरीर से बाहर निकल  जाय। 
यदि चिकित्सक को विष का ज्ञान न हो तो विष खाये हुए रोगी के लक्षण देखकर उसकी चिकित्सा विवेकपूर्ण करनी चाहिए। 
विष की चिकित्सा में जीवनीय शक्ति का ह्रास होता है इसलिए मधुर, बल्य और संतुलित भोजन करवाना चाहिए और चिकित्सक द्वारा रोगी के स्वास्थ्य का अनुकरण करते रहना रहना चाहिए। 

Friday 13 January 2017

विष के भेद - स्थावर, जांगम विष एवं उनके अधिष्ठान, विष के वेगों का वर्णन ।

                        SUBJECT - AGAD TANTRA

TOPIC-2 

विष के भेद - स्थावर, जांगम विष एवं उनके अधिष्ठान, विष के वेगों का वर्णन।

विष की परिभाषा - जो द्रव्य प्राणी के मनोदैहिक तंत्र के संपर्क में आकर उसके शरीर में प्रवेश करके विषाद ( दुःख ) पैदा करता है या उसके प्राणों का नाश करता है उसको विष कहते है । 

विष के भेद - आयुर्वेद में विष को दो भागों में बांटा गया है । 
                     1) अकृत्रिम या स्वभाविक विष 
                     2) कृत्रिम या संयोगज विष 

1) अकृत्रिम विष - जो विष अपने मूलरूप में ही पाये जाते है उन्हें अकृत्रिम विष कहते है । यह दो प्रकार के होते है । 
a) स्थावर विष 
b) जांगम विष

a) स्थावर विष - जो स्थावर रूप में स्थावर वस्तुओं में पाया जाता है। उसे स्थावर विष कहा जाता है। इसके आगे दो और भेद है ।  
1) वानस्पतिक विष - जो विष हमें पेड़ पौधों से प्राप्त होता है उसको वानस्पतिक विष कहते है । जैसे - वत्सनाभ, कुचला, भांग इत्यादि । 
2 ) खनिज या धातुज विष - जो विष खनिज और धातुओं से मिलते है उन्हें खनिज या धातुज विष कहते है। जैसे - पारा, वंग आदि । 

b) जांगम विष - जो विष हमें जीव जन्तुओं से प्राप्त होता है उसे जांगम विष कहते है । जैसे - सांप, बिच्छु, अलर्क ( कुत्ता ) आदि ।

2) कृत्रिम या संयोगज विष - जो विष दो या दो से अधिक द्रव्यों के भौतिक या रसायनिक संगठन से मिलकर बनते है उसे कृत्रिम विष कहते है । यह भी दो प्रकार के होते है । 
(a)  गर विष- एक से अधिक द्रव्यों के संयोग से बने हुए विष को गर विष कहते है । जैसे मछली का मांस और दूध का संयोग, मधु और घी की समान मात्रा विष के समान है ।
(b)  दूषी विष- विषयुक्त द्रव्य शरीर में पड़ा रहकर धीरे धीरे शरीर की धातुओं विशेषकर रक्त ( blood) को दूषित करके मृत्यु  कर देते है । उसे दूषी विष कहते है  
                                
                                                         विष 
                                ______________!_____________
                                !                                                      ! 
                      अकृत्रिम विष                                   कृत्रिम विष 
             ________!________                       ________!_______ 
            !                                !                      !                              !      
             स्थावर विष        जांगम विष            गर विष                 दूषी विष
     ______!______ 
       !                        !  
वानस्पतिक      खनिज ,धातुज विष   
                   
                                   स्थावर विष के अधिष्ठान 

स्थावर विष के अधिष्ठान - स्थावर द्रव्यों में पाये जाने वाले विष को स्थावर विष कहते है । और स्थावर द्रव्यों के जिन भागों में विष पाया जाता है उनको विष का अधिष्ठान माना गया है । स्थावर विष के 10 अधिष्ठान माने गये है। 
1) मूल विष - जिन वनस्पतियों की जड़ या मूल में विष होता है उसे मूल विष कहा जाता है। जैसे - कनेर , गूंजा, सुगन्ध, विजया आदि। 
2) पत्र विष - जिन पौधों के पत्तों में विष पाया जाता है उसको पत्र विष कहते है। जैसे- विषपत्रिका, लम्बा, वरदारू, करम्भ, महाकरम्भ आदि । 
3) फल विष - जिन वृक्षो के फलों में विष होता है उसको फल विष कहते है। जैसे- वेणुका, करम्भ, चर्मरी, सरपाक आदि। 
4) पुष्प विष - कुछ पौधों के फूलों में विष होता है । उसे पुष्प विष कहा जाता है । जैसे - वेत्र, कादम्ब, करम्भ, महाकरम्भ । 
5) त्वक, सार, निर्यास विष - जिन पौधों की शाखाओं के रस में गोंद में विष पाया जाता है उनको त्वक,सार,निर्यास विष कहते है । जैसे - करघाट, करम्भ, नन्दन, नाराचक, कर्तरी आदि। 
6) क्षीर विष - कई पेड़ पौधों से दूध निकलता है जो विष वाला ( ज़हरीला) होता है । उसे क्षीर विष कहते है । जैसे - स्नुही, जलक्षीरी, आक आदि । 
7) धातु विष - कुछ धातुयें भी विषैली होती है जिनको खाने से प्राणी की मृत्यु हो जाती है । जैसे - संखियाँ, हरताल, फेनाश्म । 
8) कन्द विष - कुछ कन्द ( घास ) भी विष वाले होते है उनको खाने से मनुष्य तथा पशुओं की मृत्यु हो जाती है । जैसे - कालकूट, वत्सनाभ, सर्षप, पालक, वैराटक आदि। 
     
                                  जांगम विष के अधिष्ठान
                               
जांगम विष के अधिष्ठान - जंगम प्राणियों में पाये जाने वाले विष को जंगम विष कहते है । सांप, कीट, चूहा, कुत्ता, छिपकली, मेंढक आदि दांतों वाले प्राणी है । इनकी दाढों से पैदा होने वाले विष को जांगम विष कहते है। इसके 16 अधिष्ठान होते है । (1) दृष्टि ( नज़र ), 2) निःश्वास , 3) नाख़ुन, 4) दाँत , 5) मूत्र , 6) पुरीष , 7) शुक्र , 8) लालास्राव , 9) आर्तव , 10) मुख , 11) संदंश (डंक ), 12) विशर्धित, 13) तुण्ड अस्थि , 14) पित्त , 15) शूक , 16) शव  

                           विष के वेगों का वर्णन 

विष के वेगों का वर्णन-  आचार्य सुश्रुत ने विष के 7 वेग तथा चरक ने 8 वेग बताये है। प्राणियों में विष के वेग तथा लक्ष्ण निम्नलिखित अनुसार बताये गये है । 
1) प्रथम वेग में रस धातु की दुष्टि होने के कारण प्यास, मोह लगती है। दांत खट्टे हो जाते है। मुख से लालास्राव होता है । वमन, सुस्ती आदि लक्ष्ण पैदा होते है। 
2) दूसरे वेग में विष रक्त धातु को दूषित करके शरीर का रंग खराब करता है। सिरदर्द , चक्कर आना, कंपकंपी, बेहोशी, जृम्भा आदि रोग होते है। 
3) तीसरे वेग में विष मांस धातु के दुष्ट होने से शरीर पर गोल गोल चकत्ते पड़ जाते है । खुजली, सूजन, कोठ, आदि लक्षण प्रकट होते है।  
4) चौथे वेग में वाट आदि धातुओं के दुष्ट होने से वमन , दाह , अंगों में दर्द, मूर्च्छा होती है। 
5) पांचवे वेग में दृष्टि मंडलों के दूषित होने से वस्तु नीले रंग की दिखाई देती है । और आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है। 
6) छठे वेग में हिचकियाँ होने लगती है । 
7) सातवें वेग में कन्धा लटक जाता है। 
8) आठवें वेग में श्वासावरोध होने से मृत्यु हो जाती है। 

पशुओं में विष के वेग -  पशुओं में विष के चार वेग होते है । पहले वेग में शरीर में पीड़ा होती है । चक्कर आते है । दूसरे वेग में पशु काँपने लगता है\ तीसरे वेग में भोजन के प्रति उदासीन तथा निष्क्रिय हो जाता है। और चौथे वेग में श्वास ( साँस ) की गति में वृद्धि होने से मृत्यु हो जाती है। 

पक्षियों में विष के वेग -  पक्षियों में विष के तीन वेग होते है। पहले वेग में पक्षी को दाह होने लगता है। दूसरे वेग में चक्कर आते है। तीसरे वेग में पक्षी के सारे शरीर के अंग ढीले पड़ जाते है और उसकी मृत्यु  जाती है। 

Thursday 12 January 2017

खण्ड पाक

TOPIC- 31          खण्ड पाक   

परिचय - यह एक प्रकार की अवलेह कल्पना के अंतर्गत आता है । इस विभिन प्रकार के द्रव्यों का चूर्ण खण्ड के रूप में प्रयोग में लेते है । 

हरिद्रा खण्ड निर्माण विधि - सबसे पहले हल्दी , गाय का दूध , घृत , खाण्ड लेकर मृदु आंच पर धीरे धीरे पाक करते है । जब यह पाक हो जाये तो त्रिकटु ,( सोंठ , पिप्पली , मरिच ) त्रिजातक ( दालचीनी , छोटी इलायची , तेजपत्र )  वायवडिंग , निशोथ , त्रिफला , नागकेसर , मोथा , लौह भस्म प्रत्येक का प्रक्षेप देते है । फिर सभी को अच्छी तरह मिला देते है । इस प्रकार हरिद्राखण्ड तैयार हो जाता है । 

मात्रा - आधा तोला । 

प्रयोग - यह कण्डू , विस्फोटक , दग्ध , शीतपित्त , उदरशूल और त्वचागत रोगों को नष्ट करता है । यह कण्डू रोग ( खुजली ) की उत्तम औषधि है ।  

                                             
                                                        ~ समाप्त ~ 
                                                              

Wednesday 11 January 2017

शतधौत तथा सहस्त्रधौत घृत

TOPIC- 30    शतधौत तथा सहस्त्रधौत घृत 

परिचय - शत अर्थात 100 बार धोया हुआ घी शतधौत कहलाता है । और 1000 बार धोया हुआ घी सहस्त्रधौत कहता है । 

निर्माण विधि - एक कांच के चौड़े कटोरे में गाय का गाड़ा घी लेकर उसमे दोगुना शीतल जल डाल लेते है । अब अपने दोनों हाथ से खूब मसलकर पानी को निथार लेते है फिर पात्र में घी के ऊपर पानी डालकर मंथन करते है और जल निथार लेते है इस प्रकार घी को शीतल जल में डालकर धोने की इस क्रिया को सौ बार किया जाये तप शतधौत कल्पना तैयार होती है । और हज़ार बार जल से धोने से सहस्रधौत घृत कल्पना बनती है । 

प्रयोग - यह कल्पना दाह , दग्ध वेदना ( जले हुए भाग में पीड़ा ) तथा पैतिक लक्षणो का शमन या नाश करने के लिए प्रयोग होता है । 

Tuesday 10 January 2017

लेप कल्पना

TOPIC- 29            लेप कल्पना 

परिभाषा -  औषधि द्रव्य को गीला करके या शुष्क औषधि चूर्ण को जल आदि दद्र्वो के साथ शिला पर पीसकर पतला कल्क बनाकर देह पर प्रलेपन हेतु जो कल्पना बनाई जाती है उसे लेप कल्पना कहते है । व्रण ( जख्म ) पर किया हुआ लेप पीड़ा को शीघ्र शांत करता है। व्रण का शीघ्र शोधन करता है । और शोथरण ( swelling ) करता है अथवा सूजन दूर करता है । लेप व्रण का रोपण भी जल्दी करता है । 

भेद -  लेप के तीन भेद होते है । प्रलेप , प्रदेह , आलेप । 

1)  प्रलेप -  यह शीतल औषधियों का पतला लेप है जो आर्द्रता ( गीलापन ) को शोषण करने वाला होता है । यह रक्त और पित्त विकारों में लाभदायक है ।  

2)  प्रदेह - यह उष्ण और शीत , मोटा और पतला तथा अधिक न सूखने वाला लेप होता है । अथवा जो आर्द्रघन ,उष्ण , श्लेष्मक और वातनाशक होता है । उसे प्रदेह कहते है । यह संधान , शोधन , रोपण , वेदनानाशक होता है । इसका प्रयोग व्रणयुक्त व अव्रणयुक्त दोनों प्रकार के शोथ  में किया जाता है। 

3)  आलेप -  प्रलेप और प्रदेह के जैसे समान लक्षणों वाला आलेप होता है । यह न अधिक गाढ़ा न अधिक पतला न अधिक शीतल न अधिक उष्ण होता है । 

लेप लगाने की विधि -  लेप को सदा लोमों के रुख के विरुद्ध दिशा में लगाना चाहिए ।

प्रयोग -  शोथ का नाश करने के लिए लेप का प्रयोग किया जाता है । इसके इलावा दाह , कण्डू और रुजा को नष्ट करने के लिए भी लेप का प्रयोग किया जाता है । 

Monday 9 January 2017

नेत्रकल्प

TOPIC- 28             नेत्रकल्प  

परिचय - आचार्य सुश्रत ने नेत्र रोगों की चिकित्सा में पांच कर्म माने है उनको नेत्र कल्प कहा जाता है । परन्तु आचार्य शार्ङ्गधर ने नेत्र रोगों के उपचार के लिए सात कल्प बताये है

1)  सेक 
2)  आश्च्योतन
3)  पिण्डी 
4)  विडाल 
5)  तर्पण 
6)  पुटपाक 
7)  अंजन 

1) तर्पण- सबसे पहले रोगी के शरीर की वमन, विरेचन से शुद्धि तथा शिरोविरेचन के द्वारा शिर का शोधन करके भोजन जीर्ण होने के बाद शुभ दिन में तर्पण करना चाहिए। वायु , धूल , धूप रहित स्थान पर रोगी को बेड पर लिटाकर दोनों नेत्रकोषो के चारों तरफ उडद की पिट्ठी से मण्डलाकार के समान और दो अंगुल ऊँचा घेरा बना दें । अब इसमें घृत को सुखोष्ण जल में मिलाकर नेत्रगोलक के पक्ष्म के अग्रभाग तक भर देते है। घृत भरते समय आँखों को बंद रखते है । आँखों की पलकें डूबने तक घृत डाला जाता है। 

अवधि - स्वस्थ नेत्र में 500 शब्द के उच्चारण तक। कफज व्याधि में 600 शब्द , पित्तज में 800 शब्द , वातज व्याधि में 1000 शब्द उच्चारण तक ।  

2)  पुटपाक - तर्पण कर्म के समान इसमें भी नेत्रकोषों के चारों तरफ उड़द पिट्ठी से घेरा बनाते है । और पुटपाक  प्राप्त औषधि रस को अपांग की तरह घेरे में छिद्र बनाकर स्वरस निकाल देते है । और उष्ण जल में कपड़ा भिगोकर निचोड़कर नेत्र  स्वदेन और धूम्रपान करना होता है । पुटपाक के तीन भेद है - स्नेहन, लेखन, रोपण । 

3)  आश्च्योतन - जो रोग अतिप्रबल नही हुआ हो उस रोग के दोषों को आश्च्योतन कर्म नष्ट करता है। यह तीन प्रकार के होते है । स्नेहन 10 बूंद , लेखन 7-8 बूंद , रोपण 12 बूंद 

विधि - वातरहित स्थान में रोगी को बैठाकर या लिटाकर बायें हाथ से नेत्र को खोलकर रुई या ड्रॉपर से दो से तीन अंगुल की ऊँचाई से दोषों के अनुसार औषधि कवाथ नेत्र के कृष्ण भाग के ऊपर 7 से 12 बिंदु डालते है। फिर कोमल वस्त्र से आँख को साफ करके कोष्ण जल से धीरे धीरे स्वेदन है । 
धारण काल - 1000 शब्दों के उच्चारण तक । 

4)  सेक -  सेक का प्रयोग पुटपाक के समान नेत्रगत वेदना , कण्डु , दाह आदि में किया जाता है । सेक का धारण काल पुटपाक से दोगुना होता है । सेक का प्रयोग व्याधि के शांत होने तक किया जाता है । सेक के भी तीन भेद होते है । लेखन-कफज रोगों में 200 शब्द , स्नेहन - वातज में 400 शब्द , रोपण - रक्तज , पित्तज में 600 शब्द तक सेक किया जाता है । 

विधि - वात , धूल , धूप रहित स्थान में रोगी को लिटाकर आंखें बन्द कर देते है । कषाय , शीतल जल आदि द्रव औषधियों को चार अंगुल की ऊंचाई से धारा के रूप में पूरे नेत्र पर गिराते है इसको सेक कहते है । 

5)  विडालक -   पलकों को छोड़कर आंखों के ऊपर लेप किया जाता है । इसे विडालक कहते है । इसकी मात्रा मुख लेप के समान होती है । इसको लगाने से नेत्र बिल्ली या विडाल के नेत्र जैसे दिखते है । इस लिए इसे विडालक कहते है । 

विधि - मुलेठी , गैरिक , सैंधव लवण , दारुहरिद्रा , रसांजन सभी को १० ग्राम की मात्रा में लेकर इमामदस्ते में कूट लेते है । उसके बाद पत्थर की शिला पर पीसकर चन्दन जैसे पिष्टि बना लेते है । फिर इसका लेप बनाकर आंखों पर लगाते है 

प्रयोग - सभी प्रकार के नेत्र रोगों में । 

6)  अंजन - नेत्र रोगों के स्थानिक उपचारों में अंजन का प्रयोग किया जाता है । आमावस्था नष्ठ होने पर रोगों के अपने रूप में प्रगट होने पर वामन विरेचन से शुद्ध शरीर रोगी के नेत्र में अंगुली या शलाका से औषध का अंजन किया जाता है या लगाया जाता है । इसके तीन प्रकार होते है । लेखन अंजन - इसका प्रयोग सुबह के समय किया जाता है । रोपण अंजन - इसका प्रयोग शाम को करते है । प्रसादन - इसका प्रयोग रात के समय किया जाता है । 

मात्रा - लेखन - 2 शलाका , रोपण - 3 शलाका , प्रसादन - 4 शलाका ।  श्लेष्मिक व्याधियों में सुबह के समय , पैत्रिक व्याधि में रात में , वातिक व्याधि में शाम के समय अंजन लगाना चाहिए ।

Saturday 7 January 2017

सिक्थ तैल कल्पना

TOPIC- 27               सिक्थ तैल कल्पना  

परिचय - सिक्थ को मोम भी कहा जाता है आयुर्वेद में मोम का अर्थ मधुमक्खी के छत्ते से लिया गया है  इस मोम अर्थात सिक्थ का प्रयोग आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में किया जाता है।  सिक्थ तैल निर्माण की दो विधियां होती है। 

प्रथम निर्माण विधि- सर्वप्रथम एक भाग मोम तथा आठ भाग तिल तैल को कड़ाही में डालकर धीमी आंच पर पाक करते है। इसमें सिक्थ ( मोम ) की मात्रा 50 ग्राम और तिल तैल की मात्रा 400 मिलीलीटर लेनी होती है। जब मोम पिघलकर तैल में मिल जाये तब तक कड़छी से उसे हिलाते रहे जब गाढ़ा हो जाये तो उसको कांच की चौड़े मुख वाली शीशी में रख लेते है इसको ही सिक्थ तैल कहते है।  

दूसरी निर्माण विधि- इस विधि में सिक्थ 50 ग्राम तथा तिल तैल 250 मिलीलीटर अथवा एक भाग मोम और पांच भाग तिल तैल कड़ाही में डालकर उसको धीमी आंच पर पकाकर तीन घंटे तक कड़छी से हिलाते रहे जब यह द्रव्य मिलकर गाढ़ा होकर एक जैसा हो जाये  तो कांच के पात्र में रख लेते है यह सिक्थ तैल है। 

प्रयोग - इसका प्रयोग व्रण रोपण के लिए और  त्वक रोगों ( skin diseases ) में किया जाता है । 

Friday 6 January 2017

उपनाह कल्पना

TOPIC - 26         उपनाह कल्पना 

परिचय - आम या पकव दोनों प्रकार के व्रणशोथ पर अलसी आदि उष्ण वीर्य द्रव्यों को द्रव के साथ पीसकर लेप लगाना उपनाह कल्पना है। शोथ की आमावस्था या अपक्वावस्था में उपनाह के प्रयोग से शोथ का शमन हो जाता है। और अपकव अवस्था में उपनाह का प्रयोग करने से शोथ का शीघ्रता से पाक हो जाता है। इंग्लिश में उपनाह को POULTICE कहते है। 

निर्माण विधि - लोहे के खरल में सत्तू को तैल और घृत के साथ कूटकर पिण्ड बना लेते है। और कुछ गर्म करके वस्त्र पर चाकू से फैला लेते है। तथा शोथयुक्त स्थान पर चिपका देते है। 

प्रयोग - इसका प्रयोग व्रण शोथ में किया जाता है।  

Thursday 5 January 2017

मलहम कल्पना

TOPIC- 25        मलहम कल्पना 

परिचय- व्रण,विद्रधि तथा त्वचा के विकारों के मल को दूर करने वाली कल्पना मलहम कहलाती है। इसको मलहर भी कहा जाता है। इंग्लिश  में इसको ointment कहते है। मलहम में दो प्रकार के द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। 
1) चिकनाई के लिए तैल,मोम,सिक्थ तैल, गन्धविरोज़ा, शतधौत घृत, वैसलीन liquid paraffin आदि द्रव्य । 
2) पारद, गंधक, रसपुष्प, रससिंदूर, स्फटिक, टंकण, कर्पूर, अजवायन के फूल आदि औषधियों का सूक्ष्म चूर्ण आदि । 

निर्माण विधि - मलहम बनाने के लिए सबसे पहले एक स्वच्छ स्टैनलेस स्टील के पात्र में तैल डालकर सिक्थ, गंधविरोजा मोमादि डालकर मृदु आंच पर गर्म करते है। पिघलने के बाद इसमें निर्दिष्ट पारद, गंधक आदि औषदि द्रव्य का चूर्ण करके छानकर गर्म तैल में डालकर अच्छी प्रकार मिलालें । इस तैयार मलहम को स्वच्छ कांच, चीनी, मिट्टी के पात्र में भरकर मुख को अच्छी प्रकार बंद करके सुरक्षित स्थान पर रख दें ।  


Wednesday 4 January 2017

यूषरस

TOPIC- 24          यूषरस 

परिचय- जल, कवाथ, स्वरस, फाण्ट, हिम आदि द्रव पदार्थ तथा औषधि द्रव के साथ मूंग, मसूर, मोठ आदि धान्य को पकाकर जो द्रव रूप तैयार होता है उसको यूष कल्पना कहा जाता है। 


परिभाषा- यदि मृदुवीर्य द्रव्य का कल्क लेना हो तो एक पल (50gm) और तीक्ष्ण वीर्य द्रव्य लेने हो तो आधा कर्ष ( 5-6gm )लेकर 100ml जल में पकाकर आधा रहने पर शेष द्रव को वस्त्र से छान लेना चाहिए। यह द्रव ही यूष है। 

यूष के भेद - 1) कृत यूष 
                  2) अकृत यूष 
                  3) कृताकृत यूष 

गुण - दीपन, पाचन, वातनाशक इत्यादि। 

Tuesday 3 January 2017

कृशरा

TOPIC- 23          कृशरा 

परिचय- कृशरा को लोकभाषा में खिचड़ी कहा जाता है। प्रायः खिचड़ी चावल मूंग की बनायी जाती है। तो आयुर्वेद में पथ्य के रूप में अतिसार में प्रयोग में लायी जाती है। 

निर्माण विधि - सबसे पहले चावल भाग और मूंग की दाल 1/4 भाग डालकर दोनों को 4 गुना पानी डालकर बर्तन  पर चढ़ा देते है। इस प्रकार पकने के बाद कृशरा या खिचड़ी कल्पना बनती है। इसमें उचित मात्रा में लवण, हींग और अदरक डाल सकते है। 

गुण - यह बलदायक, गुरुपाकी, वातनाशक, पित्तवर्धक, कफवर्धक, मल मूत्र उत्पादक होती है।  


Monday 2 January 2017

विलेपी

TOPIC- 22          विलेपी 

निर्माण विधि- चावल के कणों को मोटा कूटकर 4 गुना जल के साथ आंच पर पकाते है। जब पूरी तरह पक जाये तो आंच से उतारकर स्वादनुसार उसमे मरिच, पिप्पली सैंधव लवण  मिलाकर सेवन करते है। 

गुण - यह हृदय के लिए हितकारी है। भूख, प्यास मिटाती है। और पित्तनाशक भी है ।