TOPIC - 13 वर्तिकल्पना
परिचय- वर्तिकल्पना वटी का ही एक रूप है। यह बीच में उबरी हुई और कोनों से पतली जों के आकार की होती है । तथा कभी एक समान लम्बी आकृति की गोलाकार होती है। इसको suppository भी कहते है ।
प्रकार- प्रयोग स्थान के आधार पर यह वर्ति तीन प्रकार की होती है।
1 ) गुदव्रति - RECTAL SUPPOSITORY
2 ) शिशिनवर्ती - URETHRAL SUPPOSITORY
3 ) योनिवर्ती - VAGINAL SUPPOSITORY
इनको फलवर्ती भी कहा जाता है।
1) गुदव्रति- गुदा में संचित शुष्क मल कुपित वायु, वस्ति द्रव और दोष, दुष्य आदि को निकालने के लिए क्षारों लवणों से संयुक्त रेचक, वातानुलोमक औषधि से निर्मित गुदव्रति का प्रयोग किया जाता है ।
2) शिशिनवर्ती- शिशिनवर्ती का प्रयोग मूत्रजन्य विकारों में जैसे मूत्रकृच्छ, अश्मरी, मूत्राघात, पूयमेह आदि रोगों के नाश के लिए रोगी के अनुकूल आकार के अनुसार 4 से 12 अंगुल की पतली व्रती बनायी जाती है। इस व्रती को बनाने के लिए इसमें यवक्षार, सज्जीक्षार, स्फटिक, पाषाणभेद इत्यादि के सूक्ष्म चूर्ण में सभी द्रव्यों के चूर्ण के बराबर गुड़ लेना चाहिए।
3) योनिवर्ती- इसका प्रयोग स्त्रियों के गर्भाशय शोथ, प्रदर, गर्भस्राव, गर्भशूल आदि में शोधन तथा दोषहरण के लिए किया जाता है । इस व्रति को अशोक छाल, हींग, लोध्र जीरा, क्षार, लवण आदि द्रव्यों के बारीक चूर्ण को गुड़ के साथ बनाया जाता है । इसका आकार 2 से 6 अंगुल होना चाहिए। और इसकी मोटाई तर्जनी अंगुली के सामान होनी चाहिए।
उपयोग- वर्तियों का उपयोग वायु का अनुलोमन करने के लिए तथा शरीर में संचित दोषों को बाहर निकालने के लिए किया जाता है।
परिचय- वर्तिकल्पना वटी का ही एक रूप है। यह बीच में उबरी हुई और कोनों से पतली जों के आकार की होती है । तथा कभी एक समान लम्बी आकृति की गोलाकार होती है। इसको suppository भी कहते है ।
प्रकार- प्रयोग स्थान के आधार पर यह वर्ति तीन प्रकार की होती है।
1 ) गुदव्रति - RECTAL SUPPOSITORY
2 ) शिशिनवर्ती - URETHRAL SUPPOSITORY
3 ) योनिवर्ती - VAGINAL SUPPOSITORY
इनको फलवर्ती भी कहा जाता है।
1) गुदव्रति- गुदा में संचित शुष्क मल कुपित वायु, वस्ति द्रव और दोष, दुष्य आदि को निकालने के लिए क्षारों लवणों से संयुक्त रेचक, वातानुलोमक औषधि से निर्मित गुदव्रति का प्रयोग किया जाता है ।
2) शिशिनवर्ती- शिशिनवर्ती का प्रयोग मूत्रजन्य विकारों में जैसे मूत्रकृच्छ, अश्मरी, मूत्राघात, पूयमेह आदि रोगों के नाश के लिए रोगी के अनुकूल आकार के अनुसार 4 से 12 अंगुल की पतली व्रती बनायी जाती है। इस व्रती को बनाने के लिए इसमें यवक्षार, सज्जीक्षार, स्फटिक, पाषाणभेद इत्यादि के सूक्ष्म चूर्ण में सभी द्रव्यों के चूर्ण के बराबर गुड़ लेना चाहिए।
3) योनिवर्ती- इसका प्रयोग स्त्रियों के गर्भाशय शोथ, प्रदर, गर्भस्राव, गर्भशूल आदि में शोधन तथा दोषहरण के लिए किया जाता है । इस व्रति को अशोक छाल, हींग, लोध्र जीरा, क्षार, लवण आदि द्रव्यों के बारीक चूर्ण को गुड़ के साथ बनाया जाता है । इसका आकार 2 से 6 अंगुल होना चाहिए। और इसकी मोटाई तर्जनी अंगुली के सामान होनी चाहिए।
उपयोग- वर्तियों का उपयोग वायु का अनुलोमन करने के लिए तथा शरीर में संचित दोषों को बाहर निकालने के लिए किया जाता है।
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