धूम और रक्तमोक्षनादि का ज्ञान |
धूम -
धूम का प्रयोग नासा रोग को नष्ट करने के लिए किया जाता है यह नस्य का एक प्रकार है जिसमे औषधसिद्ध धूम को नाक से खींचा जाता है | मुख से जो धुआं लिया जाता है उसको धूम्रपान कहते है, और नाक से जो धुआं लिया जाता है उसको धूमनस्य कहा जाता है | धूम में प्रधूम नस्य का विशेष स्थान है इसमें रोगी को औषध द्रव्य का चूर्ण नाक से सूंघने के लिए दिया जाता है | औषधि को नाक में फूंकने के लिए 6 अंगुल लंबी और दोनों तरफ से मुख वाली नली का प्रयोग किया जाता है इसके इलावा चूर्ण को कपड़े पोटली में बांध कर भी सुंघाया जाता है जिसे औषधि नाक के अंदर चली जाती है |आचार्य चक्रपाणि ने प्रायोगिक, वैरेचनिक और स्नैहिक तीन प्रकार के धूम बताये है |
रक्तमोक्षण -
दूषित रक्त को शरीर से निकालना रक्तमोक्षण कहलाता है | रक्त की वृद्धि के कारण पैदा हुऐ विकारों की चिकित्सा के लिए रक्तमोक्षण कर्म कराना चाहिए | स्वेदन कर्मों से सम्पूर्ण शरीर का शुद्विकरण नहीं हो पाता | परन्तु रक्तमोक्षण करने से सभी धातुऐं शुद्ध हो जाती है | दूषित हुऐ रक्त को कई प्रकार से शरीर से बाहर निकालते है रक्त मोक्षण करने के लिए विभिन्न प्रकार के यंत्र प्रयोग में लाये जाते है | रक्तमोक्षण अष्टविध शस्त्रकर्म का सातवां कर्म माना गया है | शरीर से उचित मात्रा में रक्त का विस्रवण करवा देने से रक्तगत दोष शांत हो जाते है | रक्तमोक्षण दो प्रकार का होता है -
1) अशस्त्र विस्रवण - जिसमें शस्त्र का प्रयोग नहीं होता उस विधि के द्वारा किये गये रक्त विस्रवण को अशस्त्र विस्रवण कहा जाता है | जैसे जलौका, शृंग, अलाबू आदि के प्रयोग से रक्तमोक्षण करके दूषित रक्त बाहर निकाला जाता है
2) शस्त्र विस्रवण - जिसमें शस्त्र का पूर्णता प्रयोग किया जाता है उसको शस्त्र विस्रवण कहते है | जैसे शिरावेध में सूची कुशपत्र और त्रिकूर्चक नामक शस्त्र का प्रयोग |
यदि दूषित रक्त गंभीर धातुओं में स्थित हो तो जलौका का प्रयोग करना चाहिए | सारे शरीर में व्याप्त दोषो को निकालने के लिए शिरावेध विशेषकर हितकारी है | यदि दोष केवल त्वचा तक ही सीमित हो तो श्रृंग और अलाबू का प्रयोग कराना चाहिए |
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