Friday 29 September 2017

अंजन और स्वेदन

अंजन और स्वेदन 

अंजन  

नेत्र रोगों के स्थानिक उपचार के रूप में अंजन का प्रयोग किया जाता है । आमावस्था नष्ठ होने पर रोगों के अपने रूप में प्रगट होने पर वामन विरेचन से शुद्ध रोगी के नेत्र में अंगुली या शलाका से औषध का अंजन किया जाता है या लगाया जाता है । अंजन ना अधिक और ना ही कम लगायें | अंजन के प्रयोग के बाद नेत्रों को तब तक न धोयें जब तक दोष अश्रु और मैल के रूप में बाहर निकल रहे हों | इसके तीन प्रकार होते है । 
लेखन अंजन - इसका प्रयोग सुबह के समय किया जाता है । 
रोपण अंजन - इसका प्रयोग शाम को करते है ।
प्रसादन अंजन  - इसका प्रयोग रात के समय किया जाता है ।

आचार्य चरक के अनुसार सौवीरांजन का प्रयोग रोजाना करना चाहिए | यह नेत्रों के लिए हितकर होता है | नेत्र से दूषित स्राव को निकालने के लिए पांच से आठ दिन तक रसांजन का प्रयोग करना चाहिए |   

स्वेदन 

शरीर से जिस प्रकार की क्रिया से स्वेद या पसीना निकला जाता है उस क्रिया को स्वेदन कहते है | स्वेदन के प्रयोग से शरीर की जकड़न, भारीपन और ठंडक दूर होती है तथा पसीना निकलता है | रोग अनुसार, ऋतु के अनुसार और रोगी के बल का विचार करके स्वेदन करना चाहिए | शरीर के अनुसार स्वेदन दो प्रकार का होता है |    

स्निग्ध स्वेदन और रुक्ष स्वेदन 

1) आमाशय ( stomach ) कफ का स्थान है जब आमाशय में कफ कुपित हो जाता है तो रुक्ष स्वेद कराया जाता है जब दोष शांत हो जाये तो आगंतुक वात को शांत करने के लिए स्निग्ध स्वेदन किया जाता है | 

2) इसी प्रकार पक्वाशय वात का स्थान है वात दोष को शांत करने के लिए पहले स्निग्ध स्वेदन किया जाता है और बाद में आगन्तुक कफ दोष को शांत करने के लिए रुक्ष स्वेद कराया जाता है | 

वृषण, हृदय, नेत्र इनका स्वेदन नहीं करना चाहिए | यदि अत्यावश्यक हो तो मृदु स्वेदन करे | शरीर के दूसरे अंगों पर रोग एवं आवश्यकता अनुसार स्वेदन करे | 



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