अवलेह कल्पना, निर्माण विधि का ज्ञान। निर्मित अवलेह के लक्षण एवं अवलेह की सामान्य मात्रा।
TOPIC-4
परिभाषा- आचार्य शाङ्गधर के मतानुसार कवाथ,स्वरस,आदि औषधि कल्पो को धीमी आंच पर पकाने से जब यह थोड़े गाढ़े हो जाते है तो इन पंचकषाय कल्पनाओ के बदले स्वरूप को हम अवलेह कहते है।
अवलेह कल्पना की निर्माण विधि का ज्ञान- आधुनिक चिकित्सा में अवलेह को EXTRACT कहते है। आमतौर पर भोजन के चार प्रकार माने गये है।
1) पेय पदार्थ - पीने वाले
2) भक्ष्य पदार्थ - खाने वाले
3) लेह पदार्थ - चाटने वाले
4) चव्य पदार्थ - चबाने वाले
इसलिए भोजन की ऐसी कल्पना जिसको चाटकर खाया जाता है उसको अवलेह कहते है।अवलेह कल्पना का निर्माण २ प्रकार से किया जाता है।
1) सर्वप्रथम प्रकार के अवलेह में स्वरस या कवाथ को आग पर रखकर पकाकर गाढ़ा किया जाता है फिर उसमे चूर्ण आदि औषधि मिलाकर तैयार कर लिया जाता है। इसमें गुड़ मिलाना ज़रूरी नही है।
2) दूसरे प्रकार के अवलेह में स्वरस,कवाथ में गुड़,शकर,मिश्री या चीनी मिलाकर पहले आंच पर रखकर पकाया जाता है। चाशनी तैयार होने के बाद आग से उतार कर औषधियों का चूर्ण मिलाकर तैयार किया जाता है। जिस अवलेह को चीनी और गुड़ मिलाकर तैयार करना हो उसमे चूर्ण से चीनी की मात्रा 2 गुना लेनी चाहिए। स्वरस, कवाथ की मात्रा चूर्ण से 4 गुना होनी चाहिए।
निर्मित अवलेह के लक्षण- किसी भी अवलेह का निर्माण करते समय यह संशय बना रहता है कि यह बना है या नही। इसलिए आचार्य शाङ्गधर ने इस प्रकार अवलेह की पाक परीक्षा करने का विधान बताया है।
1) पाक होने पर तार बनना।
2) कटोरी में जल डाल कर अवलेह की बूंद डालने पर स्थिर रहना।
3) प्लेट में बूंद डालने पर अवलेह न फैलना। और ना ही प्लेट को उल्टा करने पर नीचे गिरना ।
4) अवलेह की बूंद पर अंगुली से दबाने पर चिपके नही और अंगुली की रेखा का बन जाना।
5) गंध,वर्ण और रस की उत्पति होना, जैसे चव्यनप्राश में होती है।
अवलेह की सामान्य मात्रा- 1 पल = 4 तोला = 50 ग्राम
अवलेह अनुपान- गोदुग्ध, गरम जल इत्यादि।
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परिभाषा- आचार्य शाङ्गधर के मतानुसार कवाथ,स्वरस,आदि औषधि कल्पो को धीमी आंच पर पकाने से जब यह थोड़े गाढ़े हो जाते है तो इन पंचकषाय कल्पनाओ के बदले स्वरूप को हम अवलेह कहते है।
अवलेह कल्पना की निर्माण विधि का ज्ञान- आधुनिक चिकित्सा में अवलेह को EXTRACT कहते है। आमतौर पर भोजन के चार प्रकार माने गये है।
1) पेय पदार्थ - पीने वाले
2) भक्ष्य पदार्थ - खाने वाले
3) लेह पदार्थ - चाटने वाले
4) चव्य पदार्थ - चबाने वाले
इसलिए भोजन की ऐसी कल्पना जिसको चाटकर खाया जाता है उसको अवलेह कहते है।अवलेह कल्पना का निर्माण २ प्रकार से किया जाता है।
1) सर्वप्रथम प्रकार के अवलेह में स्वरस या कवाथ को आग पर रखकर पकाकर गाढ़ा किया जाता है फिर उसमे चूर्ण आदि औषधि मिलाकर तैयार कर लिया जाता है। इसमें गुड़ मिलाना ज़रूरी नही है।
2) दूसरे प्रकार के अवलेह में स्वरस,कवाथ में गुड़,शकर,मिश्री या चीनी मिलाकर पहले आंच पर रखकर पकाया जाता है। चाशनी तैयार होने के बाद आग से उतार कर औषधियों का चूर्ण मिलाकर तैयार किया जाता है। जिस अवलेह को चीनी और गुड़ मिलाकर तैयार करना हो उसमे चूर्ण से चीनी की मात्रा 2 गुना लेनी चाहिए। स्वरस, कवाथ की मात्रा चूर्ण से 4 गुना होनी चाहिए।
निर्मित अवलेह के लक्षण- किसी भी अवलेह का निर्माण करते समय यह संशय बना रहता है कि यह बना है या नही। इसलिए आचार्य शाङ्गधर ने इस प्रकार अवलेह की पाक परीक्षा करने का विधान बताया है।
1) पाक होने पर तार बनना।
2) कटोरी में जल डाल कर अवलेह की बूंद डालने पर स्थिर रहना।
3) प्लेट में बूंद डालने पर अवलेह न फैलना। और ना ही प्लेट को उल्टा करने पर नीचे गिरना ।
4) अवलेह की बूंद पर अंगुली से दबाने पर चिपके नही और अंगुली की रेखा का बन जाना।
5) गंध,वर्ण और रस की उत्पति होना, जैसे चव्यनप्राश में होती है।
अवलेह की सामान्य मात्रा- 1 पल = 4 तोला = 50 ग्राम
अवलेह अनुपान- गोदुग्ध, गरम जल इत्यादि।
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